अनुबन्ध का अर्थ और परिभाषाए | वैध अनुबंध के आवश्यक तत्व को समझाइए | भारतीय व्यापारिक विधि के स्त्रोत

     विधि-या-सन्नियम का अर्थ (Meaning of law)

    सामान्य शब्दों में विधि का अर्थ किसी देश राज्य या स्थानीय सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक राजनैतिक क्षेत्र में मानवीय व्यवहार को व्यवस्थित व नियंत्रित करने के लिये सरकार द्वारा बनाये गये नियन, उपनियम, वैधानिक प्रक्रियाएं इत्यादि। इन्हें सन्नियम या राजनियम भी कहते हैं |


    विद्वान के अनुसार


    राजनियम से आशय राज्य द्वारा मान्य एवं प्रयोग में लाये जाने वाले उन सिद्धान्तों के समूह से है जिनको यह न्याय के प्रशासन के लिए प्रयोग में लाता है।


    व्यापारिक विधि का अर्थ (Meaning of Business Law )


    प्रो. एम. सी. शुक्ला के अनुसार व्यापारिक सन्नियम (विधि) राजनियम की वह शाखा है जिसमें व्यापारिक व्यक्तियों के उन अधिकारों एवं दायित्वों का वर्णन होता है, जो व्यापारिक सम्पत्ति के विषय में व्यापारिक व्यवहारों से उत्पन्न होते है। सामान्य अर्थ में व्यापारिक व्यवहारों या लेन-देनों के नियमित नियंत्रित व्यवस्थित व प्रभावी करने वाले वैधानिक नियमों के समूह को व्यापारिक सन्नियम (विधि) कहते है।




    वैध अनुबंध के आवश्यक तत्व को समझाइए


    व्यापारिक विधि का क्षेत्र (Scope of Business Law)


    व्यापारिक सन्नियम (विधि) के क्षेत्र में आने वाले


    अति-महत्त्वपूर्ण अधिनियम मुख्य रूप से निम्नलिखित है


    1. भारतीय अनुबन्ध अधिनियम, 1872


    2. वस्तु विक्रय अधिनियम, 1930


    3. भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932


    4. विनियम साध्य विलेख अधिनियम 1882


    5. पच निर्णय अधिनियम, 1940


    6. कम्पनी अधिनियम, 2013


    7. बैकिंग कम्पनी अधिनियम 1949


    8. उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 1956



    9. आवश्यक वस्तु अधिनियम, 1955 

    10. औद्योगिक सन्नियम


    11. श्रम अधिनियम


    12. बीमा अधिनियम 

    13. सेबी अधिनियम


    14. विदेशी विनिमय प्रबन्ध अधिनियम 1999


    15. पेटेन्ट ट्रेडमार्क और कॉपीराइट अधिनियम


    16. सूचना प्रौद्योगिक अधिनियम


    17. माल परिवहन सम्बन्धी सन्नियम


    भारतीय व्यापारिक विधि के स्त्रोत (Sources of India Business Law):

    भारत में सैकड़ों वर्षों तक बिट्रिश राज रहा, इस कारण भारतीय व्यापारिक सन्नियम का मुख्य आधार स्त्रोत इंग्लैण्ड के वाणिज्य अधिनियम पर आधारित। लेकिन इसकी संरचना में भारत में उपलब्ध वातावरण, रीति-रिवाज, व्यापारिक व्यवहार तथा यहाँ की विशेष परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा गया है। भारतीय व्यापारिक सन्नियम के मुख्यतः स्त्रांत निम्नलिखित है|


    1. इंगलिश कॉमन लॉ,


    यह इंग्लैण्ड का सर्वाधिक पुराना राजनियम है। इसकी रचना वहाँ के योग्य न्यायधीशों द्वारा महत्वपूर्ण मामलों में दिये गये निर्णयों के आधार पर की गई है।


    2. परिनियम


    परिनियम का तात्पर्य उन अधिनियमों से है जो किसी भी देश की सांसद (States) प्रणाली के अन्तर्गत सांसद तथा विधानसभाओं द्वारा बनाये जाते है। जिसमें देश की विशेष परिस्थितियों को ध्यान में रखा जाता है।


    3 .भारतीय रीति-रिवाज ऐसे रीति-रिवाज अधिक स्पष्ट एवं प्रमाणिक होने पर न्यायालयों द्वारा लिये जाने वाले निर्णयों को उचित आधार मार्गदर्शन करने में महत्त्वपूर्ण होते हैं।


    4 न्यायालयों द्वारा दिये गये महत्वपूर्ण निर्णय वर्तमान परिस्थतियों के ध्यान में रखते हुए नये-नये विषयों पर उत्पन्न विवादी पर अन्य न्यायालयों सर्वोच्च न्यायालयों द्वारा दिये गये निर्णयों को अधीनस्थ (निम्न) न्यायालयों द्वारा निर्णय लेते समय दृष्टान्त के रूप में प्रयोग किया जाता है।


    5 न्याय जब व्यापारिक विवादित मामलों के निष्पादन / निपटाने के लिए साधारण सन्नियम हल नहीं दे सकते तो न्यायालय को न्याय के आधार पर विवादों को निपटाने का अधिकार है।


    अनुबन्ध अधिनियम, 1872 एक परिचय अनुबन्ध अधिनियम व्यापारिक विधि: 

    सन्नियम की एक महत्वपूर्ण शाखा है। सामान्य जीवन में प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक क्षण किसी न किसी के सम्पर्क में आता है. और यही सम्पर्क अनुबना का आधार होता है, हम अपने जीवन की बहुत सी आवश्यकताओं को पूरा करने घूमने फिरने के • लिए, टैक्सी का प्रबन्ध करने, पढ़ने की पुस्तकें आवश्यकता की वस्तुएं खरीदने, दर्जी से कपड़े सिलवाने यात्रा या मनोरंजन के लिये टिकट खरीदने आदि अनेक दैनिक क्रियाकलापों के लिए अनुबन्ध करते ही रहते हैं। एक तरीके से हम सभी का जीवन अनुबन्धों पर आधारित है।


    व्यावसायिक जगत में अनुबन्ध अधिनियम से व्यवसाय करने वाले पक्षकारों को अपने व्यापारिक अधिकारों की सुरक्षा प्राप्त होती है। अनुबन्ध अधिनियम के बिना समस्त व्यावसायिक जगत का भवन यह जायेगा तथा सम्पूर्ण व्यावसायिक लेनदेन के बिना भय का वातावरण उत्पन्न हो जायेगा। भारतीय अनुसन्ध अधिनियम 1872 हमारे देश में सितम्बर 1872 को लागू किया गया था जिसमें कुल 266 धाराएँ थी किन्तु इस अधिनियम से कुछ धाराओं को निरस्त कर सन् 1930 में वस्तु विक्रय अधिनियम् सन् 1932 में साझेदारी अधिनियम का निर्माण किया गया। इन परिवर्तनों के बाद वर्तमान में भारतीय अनुबन्ध की विषय वस्तु निम्न प्रकार है


    1.


    अनुबन्ध के सामान्य सिद्धान्त तथा अर्थ अनुबन्ध (धारा 1 से 75 तक)


    2 हानि रक्षा तथा गारन्टी अनुबन्धों प्रावधान (धारा 124 से 147 (145)


    3. निक्षेप तथा गिरवी अनुबन्ध सम्बन्धी प्रावधान (धारा 148 से 181 तक) ऐजेन्सी अनुबन्ध सम्बन्धी प्रावधान (धारा 182 से 238 तक) 4

    प्रशन : अनुबन्ध किसे कहते हैं ? संक्षेप में एक वैध अनुबन्ध के आवश्यक तत्वों को समझाइए।

    अनुबन्ध का अर्थ एवं परिभाषाए


    अनुबन्ध शब्द की उत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द "Contrautum" से हुई है जिसका शाब्दिक अर्थ है "आपस में मिलना अतः अनुबन्ध दो या दो अधिक पक्षकारों (व्यक्तियों) के बीच किया गया एक ऐसा ठहराव है जो पक्षकारों के मध्य वैधानिक दायित्वों एवं अधिकारों की उत्पत्ति करता है। भारतीय अनुबना अधिनियम में भी अनुबन्ध की परिभाषा दी गई है। साथ ही विभिन्न विद्वानों एवं न्यायाधीशों ने भी अपने निर्णयों में इसे समझाया है। हम यहाँ कुछ विद्वानों द्वारा तथा अधिनियम में दी गयी परिभाषाओं का अध्ययन करते है


    1. सर विलियम एन्सन के अनुसार,

    अनुबन्ध दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच किया गया ठहराव है जिसे राजनियन द्वारा प्रवर्तित करवाया जा सकता है तथा जिसके अन्तर्गत एक या एक से अधिक पक्षकारों को दूसरे पक्षकार या पक्षकारों के विरुद्ध कुछ अधिकार प्राप्त होते है।


    2 न्यायाधीश साइमण्ड के अनुसार, अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है जो पक्षकारों के बीच दायित्व उत्पन्न करता है और उनकी व्याख्या करता है।


    3 भारतीय अनुसन्ध अधिनियम 1872 की धारा 2 (H) के अनुसार अनुबन्ध एक ऐसा ठहराव है, जो राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है।


    उपरोक्त सभी परिभाषाओं से स्पष्ट है कि अनुबन्ध में मुख्यतः दो तत्त्व विद्यमान है 

    1.पक्षकारों के बीच ठहराव का होना एवं

     2.उस ठहराव में राजनियम द्वारा लागू होने की योग्यता होना।

    3.भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 10 में अनुबन्ध की स्पष्टत समझाया गया है कि सभी ठहराव अनुबन्ध जो न्यायोचित प्रतिफल और उद्देश्य के लिये अनुबन्ध करने की वाले पक्षकारों को स्वतन्त्र सहमति से किये गये हो, जिन्हें स्पष्ट रूप गया से व्यर्थ घोषित न कर दिया हो और जो किसी विशेष अधिनियम के आदेश पर लिखित, साथी द्वारा प्रमाणित एवं रजिस्टर्ड हो।

    इस सभी परिभाषाओं के विशेषण से यह स्पष्ट है कि अनुबन्ध में दो प्रमुख तत्त्व विद्यमान है जाता (1) अनुबन्ध एक ठहराव है जो प्रस्ताव की स्वीकृति देने से उत्पन्न होता है।


    (2) यह ठहराव राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय होता है तथा पक्षकारों के मध्य वैधानिक दायित्व उत्पन्न करता है। सूत्र रूप में अनुबन्ध ठहराव+राजनियम द्वारा प्रवर्तनीयता


    वैध अनुबन्ध के लक्षण अथवा आवश्यक तत्व 

    भारतीय अनुबन्ध अधिनियम की धारा 2(11) में अनुबन्ध की परिभाषा के संकेत मिलते है जबकि अधिनियम की धारा 10 मे. भी का अनुबन्ध के लक्षणों के सम्बन्ध में लिखा गया है। उन सभी लक्षणों की विवेचना निम्नानुसार है


    1.दो या दो से अधिक पक्षकार होना किसी भी अनुबन्ध का प्रथम लक्षण है कम से कम:


    दो पक्षकार होना एक प्रस्तावक या वचनदाता तवचमतद तथा दूसरा प्रस्तावहता या वचनगृहिता (Oferee) कहलाता है। प्रस्तावक प्रस्ताव रखता है और प्रस्ताव उस प्रस्ताव को स्वीकार कर सकता है। जैसे शादी के लिये दो पक्षकार वर और यपू का होना आवश्यक है ठीक पैसे ही अनुबन्ध के लिये कम से • कम दो पक्षकार होना अनिवार्य है। जैसे मकान मालिक तथा किरायेदार बीमा अनुबन्ध में बीमित तथा बीमाकर्ता माल से क्रय में विक्रय की दशा में केता तथा विक्रेता


    2. ठहराव का होना

    किसी भी वैध अनुबन्ध के निर्माण के लिये दोनों पक्षकारों के बीच एक तहराव होना चाहिये ठहराव का जन्म प्रस्ताव की स्वीकृति देने से होता है। लेकिन यदि दो पक्षकार एक •साथ एक ही समय पर एक ही वस्तु के क्रमशः क्रय तथा विक्रय के लिये प्रस्ताव करते है तो इससे ठहराव का निर्माण नहीं होता है ये तो प्रति प्रस्तान (Cross offer) है।


    उदाहरण सीमा, रीटा को अपना ब्यूटी पार्लर 50000 रुपये में बेचने प्रस्ताव करती है। रोटा इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है। यहाँ सीमा और रीटा के बीच ठहराव है क्योंकि इसमें रीटा ब्यूटी पार्लर के करले सीमा को 50000 रूपये देती है और सीमा को प्रतिफल में 50000 रुपये मिलते है।


    वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा अनुबा निर्माण के लिये दोनों पक्षकारों की इच्छा


    3 (इरादा) परस्पर वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करना होना चाहिये। हम दैनिक क्रियाकलापों में कई ऐसे ठहराव करते हैं जैसे 7 साथ खेलने जाना पिकनिक जाना किसी क्लब में जाना किसी विवाह, जन्मदीन में जाना समारोह में जाना साथ-साथ भोजन करना घूमने जाना आदि। ऐसे ठहराव पारिवारिक राजनैतिक अथवा सामाजिक दायित्व तो उत्पन्न करते है। परन्तु इनका उद्देश्य किसी प्रकार का वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करना नहीं है। इस कारण मे ठहराव अनुबन्ध नहीं है। वैा अनुबन्ध के लिये दोनों पक्षकारों के दिमाग में यह बात निश्चित होनी चाहिए कि उन्हें एक दूसरे के प्रति कुछ कानूनी अधिकार होंगे और यदि इनमें से के कोई पक्षकार अनुबन्ध को पूरा नहीं करेगा तो उसे न्यायालय द्वारा पूरा करवाया जा सकेगा।


    उदाहरण- राम अपने मित्र श्याम को अपनी पुत्री अपूर्वा के जन्मदिन पर भोजन के लिये आमंत्रित करता है। स्याम ने इस निमंत्रण को स्वीकार कर लिया लेकिन निश्चित दिन व •समय श्याम किसी कारणवश भोजन के लिए नहीं पहुंचा। जिस पर राम दो भोजन सामग्री पर किये गये खर्चे व प्रतीक्षा के कष्ट के लिए श्याम पर न्यायालय में वाद प्रस्तुत किया जो न्यायालय द्वारा निरस्त कर दिया गया, क्योंकि न्यायालय की दृष्टि से ठहराव वैधानिक सम्बन्ध स्थापित करने के उद्देश्य से नहीं किया पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता


    4 वैध अनुबन्ध के लिये अनुबन्ध करने वाले पक्षकारों में अनुबन्ध करने की क्षमता होनी चाहिए। यानि वे व्यस्क व्यक्ति हो स्वस्थ मस्तिष्क का हो और राजनियम द्वारा अनुबन्ध करने के अयोग्य घोषणा न हो।


    5 सहमति अनुबन्ध निर्माण के लिये पक्षकारों के मध्य में सहमति होना आवश्यक है अर्थात् ठहराव के सभी पक्षकारों को ठहराव की प्रत्येक बात के लिये समान भाव से सहमति होनी चाहिये।


    6.पक्षकारों की स्वतन्त्र सहमति

    पक्षकारों के मध्य सहमति स्वतन्त्र होना अनिवार्य है। यदि शारीरिक एवं मानसिक दबाव या धोखे भ्रम या गलती से अनुबन्ध के लिये सहमति दी जाती है तो यह स्वतन्त्र सहमति नहीं मानी जाती है। अर्थात् ऐसी सहमति, उत्पीड़न, अनुचित प्रभाव, कपट, मिथ्यावर्णन और गलती के आधार पर प्राप्त न की जाये।


    7 वैधानिक प्रतिफल :- वैध अनुबन्ध के लिये वैध प्रतिफल का होना अनिवार्य होता है बिना प्रतिफल के ठहराव सामान्यतः व्यर्थ हो जाता थे। प्रतिफल से हमारा आशय "कुछ के बदले कुछ से है।



    9.वैधानिक उद्देश्य

     अनुबन्ध निर्माण के लिये ठहराव का उद्देश्य वैधानिक हो अर्थात् राजनियम की दृष्टि से मान्य होना चाहिये। अतः ठहराव करने का उद्देश्य अवैध अनैतिक अथवा लोकनीति के विरूद्ध नहीं होना चाहिये।


    9.निश्चितता


    अनुबन्ध में निश्चितता का होना अनिवार्य है। अतः ठहराव की शर्ते, अर्थ, मूल्य, मात्रा, सुपुदर्गी का समय, स्थान, निष्पादन विधि, माल की प्रकृति आदि महत्वपूर्ण वाले निश्चित होनी चाहिये।


    10. निष्पादन की सम्भावना


    यदि किसी ठहराव का निष्पादन करना असम्भव हो तो वह ठहराव व्यर्थ हो जाता है। कुछ ठहराव ऐसे होते है जिन्हें निष्पादित करना प्रारम्भ से ही असम्भव होता है। दूसरे ठह ऐसे है जिनको करते समय तो निष्पादित करना सम्भव होता है.. किन्तु बाद में कुछ परिस्थातियों का निष्पादन करना असम्भव हो में जाता है जैसे विषय वस्तु का नष्ट हो जाना युद्ध के कारण, विदेशी शत्रु हो जाने के कारण राजनियम के लागू होने के कारण आदि।


    11. ठहराव स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित ठहराव न हो अनुबन्ध अधिनियम के कुछ ठहरावों को स्पष्ट रूप से व्यर्थ घोषित किया हुआ है। यदि कोई ठहराव उन ठहरावों में से है तो वह कभी भी वैध नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए बिना प्रतिफल के ठहराव, अवयस्क व्यक्ति के साथ किया गया ठहराव व्यापार में रुकावट डालने वाले ठहराव आदि।


    वैधानिक औपचारिकताओं का पालन अनुबन्ध लिखित, साक्षी द्वारा प्रमाणित अथवा रजिस्टर्ड होना चाहिये यदि किसी अधिनियम द्वारा ऐसा करना अनिवार्य कर दिया गया हो। अन्य दशाओं में अनुबन्ध सामान्यत लिखित मौखिक अथवा गर्भित किसी भी रूप में हो सकता है।

    अनुबन्ध अधिनियम शब्दावली :-


    1. ठहराव

    यह वचन है जो किसी प्रस्ताव की स्वीकृति से उत्पन्न होता है। अतः ठहराव या वचन प्रस्ताव स्वीकृति 

    2 सभी अनुबन्ध है किन्तु सभी ठहराव अनुबन्ध नहीं होते केवल वे ही ठहराव अनुबन्ध बनते है जो कानून द्वारा परिवर्तित करवाये जा सकते है।


    3.वैध अनुबन्ध

    राजनियम द्वारा प्रवर्तनीय ठहराव है यह पक्षकारों के मध्य वैधानिक दायित्व उत्पन्न करता है।

    4. व्यर्थ ठहराव

    जो ठहराव राजनियम द्वारा प्रवर्तित नहीं करवाया जा सकता है। व्यर्थ ठहराव का कोई कानूनी प्रभाव नहीं होता है। व्यर्थ अनुबन्ध


    अनुबन्ध करते समय वैध होता है किन्तु बाद में परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण व्यर्थ हो जाता है। 


    6 व्यर्थनीय ठहराव

    वह है जो किसी एक पक्षकार (अर्थात् पीड़ित पक्षकार ) की इच्छा पर तो व्यर्थ होता है किन्तु दूसरे पक्षकार की इच्छा पर नहीं।


    7.अवैध ठहराव

    जो ठहराव स्पष्ट या गर्मित रूप से कानून द्वारा वर्जित हो या विधि विरुद्ध हो ऐसा ठहराव प्रारम्भ से ही व्यर्थ होता है। 8


    8. अपरिवर्तनीय अनुबन्ध


    जो अनुबन्ध मूलतः वैध होता है किन्तु कुछ तकनीकी कमियों के कारण प्रवर्तित नहीं करवाया जा सकता है। ऐसा अनुबन्ध कानूनी तकनीकी कमियों को दूर करने के बाद प्रवर्तित करवाया जा सकता है।


    9.स्पष्ट अनुबन्ध


    जिसमें पक्षकार प्रस्ताव स्वीकृति एवं अनुबन्ध की शर्तों को लिखित या मौखिक रूप से प्रकट करते है। 


    10. गर्भित अनुबन्ध

    जो पक्षकारों के कार्यों या आचरण से प्रकट होता है न कि उनके लिखित या मौखिक शब्दों से 


    11.अर्थ अनुबन्ध


    यह अनुबन्ध है जिसे पक्षकार वचनों का आपसी आदान-प्रदान करके नहीं किया जाता है बल्कि कानून द्वारा पक्षकारों पर थोपा जाता है।


    12.निष्पादित अनुबन्ध


    वह है जिसके अधीन सभी पक्षकारों ने अपने-अपने सभी दायित्वों को पूरा कर दिया है।


    13.निष्पादनीय अनुबना


    वह है जिसके अधीन सभी पक्षकारों को अपने दायित्व को पूरा करना बाकी है।


    14.द्विपक्षीय अनुबन्ध


    वह है जिसमें दोनों ही पक्षकार वचनों का आदान-प्रदान कर उन्हें भविष्य में पूरा करने का ठहराव करते है।


    15.प्रस्ताव


    जब एक पक्षकार किसी दूसरे पक्षकार के समक्ष किसी कार्य को करने या न करने की अपनी इच्छा इस उद्देश्य से प्रकट करता है कि दूसरे पक्षकार की सहमति प्राप्त हो, तो यहां एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार के समक्ष इच्छा प्रकट करना ही प्रस्ताव कहलाता है।


    16. स्पष्ट प्रस्ताव

    वह है जिसे लिखित या शब्दों द्वारा प्रकट किया जाता है।


    17.विशिष्ट प्रस्ताव

    जब कोई प्रस्ताव किसी व्यक्ति विशेष के लिये किया जाता है।




    18.सांयोगिक अनुमन्य


    किसी कार्य के करने या न करने का ऐसा अनुबन्ध जिसमे वचनदाता अनुबन्ध के समपारिक किसी विशिष्ट भावी अनिश्चित घटना के घटित होने या घटित नहीं होने पर उस अनुबन्ध को पूरा करने का वचन देता है। हानि रक्षा गारण्टी तथा बीमा के अनुबन्ध सायोगिक अनुबन्धों की श्रेणी में आते हैं।


    19.जितना काम उतना दाम


    इसका तात्पर्य है अनुबन्ध भंग की दशा में पीड़ित पक्षकार ने जितना कार्य कर लिया है, उसको तो भुगतान दिया ही जाना चाहिये। पीड़ित पक्षकार को यह राशि क्षतिपूर्ति की राशि के अतिरिक्त पाने का अधिकार होता है।


    20.निषेधात्रा

    न्यायालय का यह आदेश जो अनुबन्ध की शर्तों के विरुद्ध कार्य करने पर लगाया जाता है।




    21.थानापन्न प्रस्ताव


    जब किसी प्रस्ताव की स्वीकृति प्रस्ताव की शर्तों से हटकर की जाती है तो उस स्वीकृति की स्वीकृति नहीं बल्कि स्थानापन्न प्रस्ताव कहते है।


    22 अर्द्धअनुबन्ध


    अनुबंध कानून द्वारा उत्पन्न किये जाते है। ये पक्षकारों पर कानून द्वारा पोपे जाते हैं।


    23.स्वतन्त्र सहमति

    सहमति तब स्वतन्त्र मानी जाती है जब यह उत्पीड़न अनुचित प्रभाव कपट मिथ्यावर्णन और गलती में से किसी भी तत्व के प्रभावित न हो।


    24. क्षतिपूर्ति अथवा हानि रक्षा अनुबन्ध ऐसे अनुबन्ध जिसके द्वारा एक पक्षकार किसी दूसरे पक्षकार को ऐसी हानि से बचाने का वचन देता है। जो वचनदाता के स्वयं के आचरण में या अन्य किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से पहुंचे।


    25.उत्पीड़न

    किसी व्यक्ति के साथ ठहराव करने के उद्देश्य से कोई ऐसा कार्य करना या करने की धमकी देना जो भारतीय दण्ड विधान द्वारा वर्जित हो या किसी व्यक्ति के हितों के विपरीत उसकी सम्पति को अवैधानिक रूप से रोकना या रोकने की धमकी देना उत्पीड़न है।


    26. गारण्टी अनुबन्ध


    जिसमें एक पक्षकार किसी दूसरे पक्षकार को यह वचन देता है कि किसी तृतीय पक्षकार वचन का पालन नहीं करने दायित्व का निर्वाह नहीं करने की दशा में वह स्वयं उसको वचन का पालन या दायित्व का निर्वाह कर देगा।


    27.अनुचित प्रभाव:


    जब कोई व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की इच्छा को प्रभावित करने की स्थिति में होता है तथा वह इस स्थिति का उपयोग करके उस दूसरे व्यक्ति के साथ अनुबन्ध में अनुचित लाभ प्राप्त करना है।


    28.विशिष्ट या साधारण मारण्टी

    जब किसी विशिष्ट ऋण या सौदे के लिए गारण्टी दी जाती है।



    29. कपट

    अनुबन्ध के पक्षकार या उसके एजेण्ट द्वारा दूसरे पक्षकार के समक्ष अनुबन्ध के महत्वपूर्ण तथ्यों का मिथ्यावर्णन करना अथवा उन्हें छिपाता है ताकि दूसरे को धोखे में डालकर उसे अनुबना के लिए प्रेरित किया जा सके।


    30.निशेष अनुबंध


    जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे उद्देश्य के इस शर्त पर माल सुपुर्द करता है कि उस निश्चित उद्देश्य के पूरा हो जाने पर बहउस माल का उसे (सुपुर्दगी देने को वापस लौटा देगा अथवा उसके निर्देशानुसार उस नाल की व्यवस्था कर देगा।


    31. प्रतिफल

    यह वह मूल्य है जो अनुबका का एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के वचन या कार्य के बदले चुकाता है।


    32. चालू गारंटी:

    जो सौदों या व्यवहारों की एक श्रृंखला तक विस्तृत होती है।

    33. निशेष अनुबंध

    जिसमें एक व्यक्ति किसी दूसरे उद्देश्य के इस शर्त पर माल सुपुर्द करता है कि उस निश्चित उद्देश्य के पूरा हो जाने पर बहउस माल का उसे (सुपुर्दगी देने को वापस लौटा देगा अथवा उसके निर्देशानुसार उस नाल की व्यवस्था कर देगा।

    34.ग्रहणाधिकार


    किसी व्यक्ति उसके अधिकार में रखी हुई वस्तु जिसका वह स्वामी नहीं है तो उस समय तक रोक कर रखने का अधिकार है जब तक कि अधिकार रखने वाले व्यक्ति की मांगों को सन्तुष्ट नही कर दिया जाता है। 

    35.गिरवी

    किसी व्यक्ति के भुगतान या वचन के पालन की प्रतिपूर्ति के लिए किसी माल का निक्षेप है।


    36.गिरवीकर्ता


    यह व्यक्ति है जो माल को गिरवी रखने हेतु निक्षेप करता है।


    37.गिरवीग्राही


    यह व्यक्ति होता है जो किसी दूसरे के माल को प्रतिभूति के रूप में स्वीकार कर निक्षेप ग्रहण करता है। ऐजेन्ट तथा प्रधान के बीच ठहराव द्वारा उत्पन्न एक ऐसा सम्बना है जिसमे प्रधान एजेन्ट को अपने प्रतिनिधित्व


    38.एजेन्ट


    यह व्यक्ति जिसे किसी व्यक्ति द्वारा अपना प्रतिनिधित्व करने तथा अन्या पक्षकारों के साथ अपने अनुबंधात्मक सम्बन्ध स्थापित करने हेतु अधिकृत किया गया है।

    ऐजेन्ट तथा प्रधान के बीच ठहराव द्वारा उत्पन्न एक ऐसा सम्बना है जिसमे प्रधान एजेन्ट को अपने प्रतिनिधित्व




    Arjun Singh

    नमस्कार दोस्तो, मेरा नाम अर्जुन सिंह है, मैं अभी बी.कॉम से ग्रेजुएशन कर रहा हूं । मुझे लेख लिखना बहुत पसंद है इसलिय में ये ब्लॉग बनाया है, मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद!

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