What is Financial Management in Hindi - वित्तीय प्रबंधन क्या है?

वित्तीय प्रबन्ध : एक परिचय
(Financial Management: An Introduction)


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वित आधुनिक व्यवसाय का जीवन रक्त है। यह उद्योग एवं वाणिज्य के लिए उसी प्रकार महत्त्वपूर्ण है जिस प्रकार पहियों को चिकनाई देने वाला तेल, हड्डियों के लिए मज्जा तथा नाड़ियों के लिए रक्त। वर्तमान समय में को प्रारम्भ करने, सुचारु रूप से चलाने एवं विकसित करने के लिए वित्त की आवश्यकता होती है। वित्त के अभाव में अच्छी से अच्छी योजनाएँ केवल कागजों पर ही रह जाती हैं और यदि पर्याप्त वित्त के अभाव में किसी योजना को कार्यरूप दे भी दिया जाये तो बाद में उसके संचालन एवं नियंत्रण में अनेक कठिनाइयाँ उत्पन्न हो जाती वास्तव में, कभी-कभी वित्त की अपर्याप्तता व्यावसायिक असफलता का कारण नहीं होती, बल्कि वित्त का कुप्रबन्ध ही इसके लिए उत्तरदायी होता है। किसी संस्था का जीवित रहना तथा विकास करना तभी सम्भव होता है जबकि वह अपने कोषों का सर्वोत्तम उपयोग करे। अतः यह कहना ठीक ही है कि बिना पर्याप्त वित्त के कोई व्यवसाय जीवित नहीं रह सकता तथा बिना प्रभावपूर्ण वित्तीय प्रबन्ध के कोई व्यवसाय समृद्ध एवं विकसित नहीं हो सकता। दूसरे शब्दों में, किसी व्यवसाय की सफलता वित्त की पर्याप्त पूर्ति तथा वित्त के प्रभावपूर्ण प्रबन्ध पर ही निर्भर करती है।



वित्तीय प्रबन्ध : अर्थ एवं परिभाषा
(Financial Management: Meaning and Definition)


जैसा कि पूर्व में बतलाया गया है, वित्त का अध्ययन वर्णात्मक न रहकर पूर्ण रूप से विश्लेषणात्मक एवं निर्णयात्मक हो गया। है तथा इस विषय का क्षेत्र भी विस्तृत हो गया है। अतः परम्परागत विचारधारा के अन्तर्गत जिसमें 'निगम वित्त' (Corporation Fimance) या व्यावसायिक वित्त' (Business Finance) मानकर अध्ययन करते थे. आधुनिक विचारधारा के अन्तर्गत उसे 'प्रबन्धकीय दिन' | Managerial Finance) या वित्तीय प्रबन्ध' (Financial Management) मानकर अध्ययन करते हैं। वित्तीय प्रबंध शब्द दो शब्दों "विनीय' तथा 'प्रबन्ध' से बना है। वित्तीय शब्द का अर्थ है-धन प्राप्ति के साधनों को जुटाना तथा व्यवसाय की मौद्रिक आवश्यकताओं का पूर्वानुमान लगाकर उनके आधार पर इन साधनों का आवंटन करना। प्रबन्ध शब्द से अभिप्राय किसी संस्था के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए मानवीय क्रियाओं और भौतिक संसाधनों के नियोजन, संगठन, समन्वय एवं नियंत्रण से है। इस प्रकार वित्तीय प्रवन्ध व्यावसायिक प्रवन्ध की वह शाखा है जो संस्था के वित्तीय संसाधनों के नियोजन एवं नियंत्रण से सम्बन्धित हैं अर्थात् वित्त कार्य का प्रवन्ध। दूसरे शब्दों में, वित्तीय प्रबन्ध मुद्रा प्रबन्ध के उपाय एवं साधन (ways and means) के रूप में है अर्थात् वित्तीय संसाधनों का निर्धारण, प्राप्ति, आवंटन एवं उपयोग है।


इस प्रकार वित्तीय प्रबन्ध उन प्रबन्धकीय निर्णयों से संबंधित है जिनका परिणाम संस्था की दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन सम्पत्तियों की प्राप्ति एवं वित्त पूर्ति है। इन निर्णयों का विश्लेषण कोषों के अपेक्षित अंतर्बाह, बहिर्वाह एवं प्रबंधकीय उद्देश्यों पर पड़ने वाले प्रभावों पर आधारित होता है। हावर्ड एवं उपटन के शब्दों में, "नियोजन एवं नियंत्रण कार्य को वित्तीय कार्यों पर लागू करना वित्तीय प्रबन्ध है। व्हिलर के अनुसार, "वित्तीय प्रबन्ध का आशय उस क्रिया से होता है, जो उपक्रम के उद्देश्यों एवं वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पूजी कोषों के संग्रहण एवं उनके प्रशासन से संबंध रखती है। शब्दों में, "वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का वह क्षेत्र है जिसका संबंध पूजी के विवेकपूर्ण उपयोग एवं वित्तीय स्रोतों जोसेफ एफ ब्रेडले के के सतर्कतापूर्ण चयन से है, ताकि व्यवसाय को इसके उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में निर्देशित किया जा सके।" जे. एल. मैसी के अनुसार, “वित्तीय प्रबन्ध व्यवसाय की वह परिचालनात्मक क्रिया है जो उपक्रम के कुशलतापूर्वक संचालन के लिए आवश्यक वित्त प्राप्ति एवं उसके प्रभावशाली उपयोग हेतु उत्तरदायी होती है।' 


उपर्युक्त विवेचन के आधार पर संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबंन्ध का एक कार्यात्मक क्षेत्र (Functional Area) है। यह सम्पूर्ण प्रबन्ध का एक भाग है। इसका संबंध मुख्यतः आर्थिक दृष्टि से सर्वाधिक उपयुक्त विधि द्वारा कोषों की प्राप्ति, इन कोषों का लाभप्रद उपयोग, भावी क्रियाओं का नियोजन तथा वित्तीय लेखांकन, लागत लेखांकन, बजटन, सांख्यिकी व अन्य विधियों द्वारा चालू निष्पत्तियों के नियंत्रण से है।




वित्तीय प्रबन्ध की प्रकृति अथवा विशेषताएँ (Nature or Characteristics of Financial Management)



आधुनिक विचारधारा ने वित्त कार्य अथवा वित्तीय प्रबन्ध की भूमिका को व्यावसायिक प्रबन्ध के क्षेत्र में अतिमहत्त्वपूर्ण बना दिया है। अब वित्त कार्य में कोषों की व्यवस्था करने के साथ-साथ इनका विवेकपूर्ण उपयोग करने का दायित्व भी आ गया है। यह यदा-कदा होने वाला कार्य न होकर एक सतत व्यावहारिक कार्य बन गया है। इसी विचारधारा के आधार पर वित्तीय प्रबन्ध अथवा वित्त कार्य की प्रमुख विशेषताओं का नीचे उल्लेख किया जा रहा है


1. व्यावसायिक प्रबन्ध का अभिन्न अंग (Essential Part of Business Managemnet) 

वित्तीय प्रबन्ध व्यावसायिक प्रबन्ध का अभिन्न अंग होता है। यदि इसे प्रबन्ध का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अग माना जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि प्रारम्भ से अन्त तक व्यवसाय के संगठन एवं संचालन में वित्त का महत्व सर्वोपरि होता है। व्यवसाय की प्रत्येक क्रिया के साथ धन का संबंध जुड़ा होता है। उदाहरणार्थ, उत्पादन के लिए आवश्यक मशीनों, संयंत्रों, उपकरणों, कच्चे माल, ईंधन आदि के विषय में तकनीकी दृष्टि से विचार करने का दायित्व उत्पादन प्रबंधक का होता है। इनके विषय में अंतिम निर्णय तब तक नहीं लिये जायेंगे जब तक इनसे सम्बद्ध वित्तीय पहलुओं पर वित्त प्रबन्धक अपना उचित परामर्श नहीं दे देता है। इस दृष्टि से इजरा सोलोमन ने उचित ही कहा है कि, "वित्तीय प्रबन्ध को कोषों की व्यवस्था करने से संबंधित एक स्टाफ गतिविधि के रूप में नहीं देखा जाता है बल्कि सम्पूर्ण प्रबध (overall management) के एक अभिन्न अंग के रूप में देखा जाता है।" इसीलिए वित्तीय प्रबन्धक उच्च प्रबंध टोली के सक्रिय सदस्यों में से एक होता है।


2. सतत् प्रशासनिक कार्य (Continuous Administrative Function)


परम्परागत विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य केवल कोषों की व्यवस्था करने तक ही सीमित था। अतः यह कार्य यदा-कदा विशिष्ट परिस्थितियों जैसे- प्रवर्तन, पुनर्संगठन, सविलयन, एकीकरण आदि में ही उत्पन्न होता था। किन्तु आधुनिक विचारधारा के अनुसार वित्त कार्य एक सतत् प्रशासनिक प्रक्रिया है, क्योंकि वर्तमान समय में व्यवसाय के सफल संचालन के लिए कोषों के संग्रहण एवं उनके विवेकपूर्ण उपयोग का दायित्व भी इसके कार्य क्षेत्र में आता है। इसे पूजी बजटन के साथ-साथ कार्यशील पूंजी के प्रबन्ध का कार्य भी सम्पन्न करना होता है जो कि एक विशाल उपक्रम के वित्तीय प्रबन्धक के लिए निरन्तर बना रहने वाला सिरदर्द है।


3. वैज्ञानिक एवं विश्लेषणात्मक (Scientific and Analyucal) वर्तमान स्वरूप में वित्त कार्य वर्णनात्मक कम तथा वैज्ञानिक एवं विश्लेणात्मक अधिक है, जबकि परम्परागत वित्त कार्य वर्णनात्मक अधिक एवं विश्लेणात्मक कम था। आज विभिन्न वित्तीय निर्णय लेते समय वित्तीय विश्लेषण एवं विभिन्न विकल्पों के



  • 1. Howard and Upton. An Introduction to Business Finance. p4
  • 2.Wheeler, Business An Introductory Analysis. p. 3395 Joseph F. Bradley: Administration of Financial Management p.4
  • 3  Joseph L. Massic. "Financial Managemem p. 5.



मूल्यांकन हेतु आधुनिक गणितीय एवं सांख्यिकीय विधियों का प्रयोग किया जाता है। इसीलिए कोहेन एवं रोबिन्स ने शिष प्रबन्ध को कला एवं विज्ञान, दोनों माना है। उनके अनुसार, "एक व्यावसायिक संस्था के वित्त का प्रबंध करना एक कला हो के साथ-साथ विज्ञान भी है। इसके लिए परिस्थिति की मही पकड़ एवं विश्लेषणात्मक दक्षता की तो आवश्यकता होती ही है. साथ में वित्तीय विश्लेषण की विधियों और तकनीकों के प्रचुर ज्ञान तथा उनके व्यावहारिक उपयोग एवं प्राप्त परिणामों की सही समीक्षा करने की भी अपेक्षा होती है। "


4. केन्द्रीयकृत प्रवृत्ति (Centralised Nature)


प्रबंध के समस्त कार्यकारी क्षेत्रों (Functional arcas) में वित्तीय प्रबन्ध या वित्त कार्य ही मूलतः केन्द्रीयकृत स्वभाव का होता है। उपक्रम के अन्य कार्यों जैसे-उत्पादन, विपणन, सेविवर्गीय की भांति वित्त कार्य का विकेन्द्रीयकरण वांछनीय नहीं है, क्योंकि वित्त कार्य के केन्द्रीयकरण द्वारा ही व्यवसाय के उद्देश्यों को अधिक प्रभावशाली ढंग से प्राप्त किया जा सकता है जैसा कि जैक ओ. वैन्स ने कहा है, "आधुनिक औद्योगिक उपक्रम में विपणन एवं उत्पादन कार्यों का विकेन्द्रीयकरण तो संभव है, किन्तु वित्तीय समन्वय एवं नियंत्रण की स्थिति केन्द्रीयकरण के द्वारा ही स्थापित की जा सकती है। व्यवसाय में वित्त कार्य की तुलना मानव शरीर के हृदय संस्थान से की जा सकती है जिसकी मूल प्रकृति ही केन्द्रीयकृत है और जो शरीर के विभिन्न अंगों में फैले स्नायु तंत्रों द्वारा शारीरिक एवं मानसिक गतिविधियों में समन्वय एवं नियंत्रण स्थापित करता है।


5. व्यापक क्षेत्र (Wide Scope)


वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र अत्यधिक व्यापक एवं जटिल है। इसका क्षेत्र प्राचीन समय की तरह उपक्रम के लिए केवल दीर्घकालीन वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पूंजी प्राप्त करने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसके कार्यक्षेत्र में उपक्रम की अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कोषों की प्राप्ति, कोषों का उचित आवंटन एवं उनका अनुकूलतम उपयोग भी आता है। इसके अतिरिक्त यह लेखांकन, पूंजी बजटन, अंकेक्षण, लागत नियंत्रण, रोकड़ व साख प्रबन्ध तथा अन्य दैनिक व्यवहारों के लिए भी उत्तरदायी होता है।


6. सभी प्रकार के संगठनों में लागू (Applicable to All Types of Organisation)


वित्तीय प्रबन्ध सभी प्रकार के निर्माणी तथा सेवा संगठनों में लागू होता है, चाहे उनका आकार, प्रकृति, स्वामित्व व नियंत्रण कैसा भी हो। यह कहना कि वित्तीय प्रबन्ध लाभ कमाने के उद्देश्य से स्थापित निजी संगठनों में ही लागू होता है, इस विषय के क्षेत्र को संकुचित करना है। रेमण्ड चेम्बर्स के अनुसार, "वित्तीय प्रबन्ध किसी भी प्रकार के उपक्रम या संगठन में लागू किया जा सकता है चाहे इसके उद्देश्य या संविधान कैसा भी हो।"


7. लेखांकन कार्य से भिन्न (Different from Accounting Functions)


बहुत से व्यक्ति अनेक शर्तों एवं अभिलेखों के समान उपयोग के आधार पर वित्त कार्य एवं लेखांकन कार्य को एक ही मानते हैं। किन्तु वित्त कार्य लेखांकन कार्य से भिन्न है। मूल रूप से लेखांकन का कार्य समंक संग्रहण करना है जबकि वित्त कार्य निर्णयन के लिए समंकों के विश्लेषण से संबंधित है।



वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य
(Goals or Objectives of Financial Management)



उद्देश्यों को लक्ष्य या संकल्प (goals, aims, pruposes or targets) के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। ये एक संस्था के निष्पादन अथवा सफलता का मूल्यांकन करने के प्रमाप या मापदण्ड प्रदान करते हैं। एक व्यावसायिक संस्था का मुख्य उद्देश्य उत्तरजीविता तथा समृद्धि (survival and growth) हैं। व्यवसाय में जीवित रहो एवं समृद्धि की ओर बढ़ने के लिए। एक व्यावसायिक संस्था को स्वामियों के आर्थिक हितों के लिए पर्याप्त मात्रा में लाभ अर्जन करना चाहिए। इसलिए फर्म का वित्तीय उद्देश्य स्वामियों के आर्थिक हितों को अधिकतम करना स्वीकार किया गया है, किन्तु इस बात पर असहमति है कि स्वामियों के आर्थिक हितों को किस प्रकार अधिकतम किया जा सकता है। इसके लिए दो मापदण्ड हैं-(i) लाभ अधिकतम करना (Profit Maximisation) तथा (ii) सम्पदा अधिकतम करना (Wealth Maximisation) निर्धारित किये गये हैं। ये मापदण्ड ही वित्तीय प्रबन्ध के उद्देश्य कहे जाते हैं, जिनका विवेचन नीचे किया जा रहा है




लाभ अधिकीकरण (Profit Maximisation)


प्रत्येक व्यावसायिक उपक्रम का मूल उद्देश्य उसके स्वामियों का हित साधन माना जाता है, जिसकी पूर्ति अधिकतम लाभोपार्जन द्वारा की जा सकती है। अत: इस मापदण्ड के अनुसार उपक्रम के विनियोग, वित्तपूर्ति तथा लाभांश निणयों को लाभों को अधिकतम करने की ओर अभिमुख होना चाहिए अर्थात् उन सम्पत्तियों, परियोजनाओं एवं निर्णयों का चयन किया जाये जो अधिक लाभप्रद हैं तथा जो लाभप्रद नहीं हैं उन्हें अस्वीकार किया जाये। वित्तीय प्रबन्ध के इस उद्देश्य को निम्नलिखित तर्कों के आधार पर न्यायोचित बतलाया गया है


(1) विवेकपूर्ण : किसी आर्थिक क्रिया को विवेकपूर्ण ढंग से करने का उद्देश्य उपयोगिता को अधिकतम करना होता है। इस उपयोगिता को लाभ के रूप में मापा जा सकता है। अतः विवेक के आधार पर लाभ को अधिकतम करना उचित ठहराया जा सकता है।


(2) आर्थिक कुशलता का माप: किसी भी व्यावसायिक उपक्रम में अर्जित किया गया लाभ उसकी उत्पादन कुशलता, विक्रय तथा प्रबन्धकीय कुशलता का परिणाम माना जाता है। अतः लाभ के आधार पर किसी व्यावसायिक उपक्रम की कार्य निष्पत्ति का मूल्यांकन किया जा सकता है क्योंकि लाभ में वृद्धि उत्पादन को अधिकतम अथवा लागतों को न्यूनतम करके ही की जा सकती है।


(3) प्रमुख प्रेरणा स्रोत : लाभ व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह को कठोर परिश्रम एवं कड़ी प्रतिस्पर्धा द्वारा एक दूसरे से अधिक कुशल बनाने का मार्ग प्रशस्त करता है। यदि लाभ का आकर्षण समाप्त कर दिया जाये तो पारस्परिक प्रतिस्पर्धा एवं प्रतियोगिता का कोई स्थान नहीं रह जायेगा। ऐसी स्थिति में विकास एवं प्रगति की गति भी धीमी हो जायेगी।


(4) अधिकतम सामाजिक कल्याण : अधिक लाभ होने पर ही एक उपक्रम विभिन्न सामाजिक कार्यों जैसे-शिक्षा, चिकित्सा, श्रम कल्याण आदि पर व्यय करके समाज का अधिकतम कल्याण कर सकता है।


(5) निर्णयन का आधार व्यवसाय में सभी निर्णय लाभोपार्जन के उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही लिये जाते हैं। यही निर्णयों की सफलता का मूल आधार है।


उपर्युक्त तर्कों के आधार पर व्यवसाय का लाभ अधिकीकरण का उद्देश्य न्यायोचित होते हुए भी इसकी पिछले कुछ वर्षों से अनेक आलोचनार की गई हैं। प्रथम, लाभ अधिकतम करने वाली संस्था श्रमिकों एवं उपभोक्ताओं का शोषण जती है। इसलिए यह अनैतिक है तथा भ्रष्ट तरीकों को बढ़ावा देती है। इसके अतिरिक्त यह सामाजिक असमानताओं की ओर अग्रसर होती है। एवं मानवीय मूल्यों जो कि एक आदर्श सामाजिक पद्धति के लिए अनिवार्य है, का हनन करती है। द्वितीय, अब अनेक विद्वानों का यह मत है कि लाभ अधिकतम करने का उद्देश्य पूर्ण प्रतियोगिता की स्थिति में ही प्राप्त किया जा सकता है। अपूर्ण प्रतियोगिता की दशाओं में लाभ को अधिकीकरण का औचित्य समाप्त हो चुका है जबकि आधुनिक युग में प्रायः विश्व के सभी बाजारों में अपूर्ण प्रतियोगिता ही दिखलाई पड़ती है। तृतीय, लाभ अधिकतम करना 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में व्यवसाय का प्रमुख उद्देश्य माना गया था। उस समय व्यावसायिक ढाँचे की विशेषताएँ स्ववित्त, निजी सम्पत्ति एवं एकाकी संगठन थे। किन्तु आधुनिक व्यवसाय की विशेषताएँ सीमित दायित्व एवं प्रबन्ध तथा स्वामित्व में पृथक्करण है। अब व्यवसाय का प्रबन्ध पूर्व की भांति व्यवसाय स्वामियों द्वारा न किया जाकर पेशेवर प्रबन्धकों द्वारा किया जाता है जो अनेक परस्पर विरोधी हितों (ग्राहक, कर्मचारी, सरकार एवं समाज) में उचित सामजस्य रखकर ही व्यवसाय को लाभप्रद स्थिति में रखने में सफल हो सकते हैं। अतः इस नवीन व्यावसायिक वातावरण में लाभ अधिकीकरण का उद्देश्य अवास्तविक, कठिन, अनुचित तथा अनैतिक लगता है। इतना ही नहीं, बल्कि निम्नलिखित कमियों के आधार पर लाभ अधिकीकरण व्यवसाय स्वापियाँ के अधिकतम आर्थिक कल्याण के मापदण्ड के रूप में अस्वीकार किया जा चुका है


(1) अस्पष्ट : वित्तीय निर्णयन के लिये लाभ अधिकतम करने के मापदण्ड की एक कठिनाई लाभ की अस्पष्ट अवधारणा है। फर्म अल्पकालीन लाभ को अधिकतम करे अथवा दीर्घकालीन लाभ को? लाभ के अनेक स्वरूप हो सकते हैं जैसे- सकल लाभ, ब्याज एवं कर से पूर्व लाभ (PBIT), कर के पश्चात् लाभ, शुद्ध लाभ आदि। इनमें से कौन से लाभ को अधिकतम किया जाये?


(2) मुद्रा के समय मूल्य की अवहेलना : लाभ अधिकीकरण का उद्देश्य विभिन्न समय अवधियों ने प्राप्त की गई लाभ की राशियों में अन्तर नहीं करता है। इसमें विभिन्न वर्षों में प्राप्त आय को समान महत्त्व प्रदान किया जाता है जो कि सिद्धान्ततः सही नहीं है। आज प्राप्त होने वाले एक रुपये का वर्तमान मूल्य एक या दो वर्ष बाद प्राप्त होने वाले रुपये के समान नहीं होगा, बल्कि निश्चित रूप से अधिक होगा।


(3) जोखिम की अवहेलना : किसी कार्य से भावी वर्षों में प्राप्त होने वाली आय में निश्चितता या अनिश्चितता का अंश अधिक या कम मात्रा में हो सकता है जो न्यूनाधिक जोखिम का प्रतीक माना जायेगा। उदाहरणार्थ, दो फर्मों की सम्भावित अर्जनों का योग समान हो सकता है, किन्तु यदि एक फर्म की अर्जनें दूसरी की तुलना में अधिक बढ़ती घटती हो तो यह अधिक जोखिपूर्ण  होगी।


(4) व्यवसाय के सामाजिक दायित्व की अवहेलना : लाभ अधिकीकरण का उद्देश्य व्यवसाय के सामाजिक दायित्व पर विचार नहीं करता। इसमें श्रमिकों, उपभोक्ताओं, सरकार एवं सामान्य जनता के हितों की अवहेलना की जाती है। केवल लाभ अधिकीकरण का उद्देश्य प्रबन्धकों को भ्रमित कर सकता है। इससे उनके द्वारा शोध, अधिशाषी विकास एवं अन्य अपूर्ण विनियोगों की अवहेलना करने से संस्था का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।


उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वित्तीय प्रबन्ध का लाभ अधिकीकरण का उद्देश्य आज की परिवर्तित व्यावसायिक परिस्थितियों में अनुचित एवं अनुपयुक्त हो गया है। इसीलिए इसे अब व्यवसाय के मूल उद्देश्य के रूप में एक पुरातन सिद्धान्त ही माना जाता है। मार्क्सवादी विचारधारा के अनुसार भी अधिकतम लाभ के विचार को शोषण का प्रतीक माना जाता है। इस कथन के बारे में मतभेद हो सकता है, किन्तु सत्य है कि अपूर्ण प्रतियोगिता में लाभ अधिकीकरण का सिद्धान्त निश्चय ही आर्थिक सत्ता के केन्द्रीयकरण व एकाधिकारी प्रवृत्तियों को जन्म देगा। यही कारण है कि अब वित्तीय प्रबन्ध का मुख्य उद्देश्य लाभ अधिकीकरण के स्थान पर सम्पदा अधिकतम करना माना जाता है।




वित्तीय प्रबन्ध का क्षेत्र अथवा कार्य

(Scope or Functions of Financial Management) 


एक व्यावसायिक उपक्रम में वित्तीय प्रबन्ध के कुछ महत्त्वपूर्ण दायित्व होते हैं, जिनका निष्पादन विभिन्न कार्यों को सम्पन्न करके किया जाता है जिन्हें वित्त कार्यों के रूप में जाना जाता है। इन्हें वित्त कार्य का क्षेत्र अथवा वित्त कार्य की विषय-सामग्री Scope or Contents of Finance Functions) भी कहा जाता है। वित्तीय विशेषज्ञों में वित्तीय प्रबन्ध के इन कार्यों तथा उनके नामों के बारे में मतैक्य नहीं है। विभिन्न विशेषज्ञ वित्तीय प्रबन्ध के भिन्न-भिन्न कार्य बतलाते हैं तथा एक ही कार्य को विभिन्न नामों से पुकारते हैं। इनमें से कुछ कार्य निर्णय सम्बन्धी हैं जो सामरिक महत्त्व के हैं, कुछ कार्य नैत्यिक प्रकृति के हैं जो निर्णयों की कार्य रूप में परिणित करते हैं तथा कुछ अनावर्ती व्यावसायिक क्रियाओं से सम्बन्धित हैं। अतः अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से वित्तीय प्रबन्ध के इन कार्यों को आगे दिये चार्ट अनुसार- (i) प्राथमिक अथवा प्रशासकीय कार्य; (ii) सहायक कार्य, तथा (III) नैत्यिक कार्य में वर्गीकृत किया जा सकता है।


प्राथमिक अथवा प्रशासकीय वित्त कार्य (Primary or Administrtive Finance Functions)



प्राथमिक अथवा प्रशासकीय वित्तीय कार्यों से आशय वित्त सम्बन्धी महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने से होता है। इन निर्णयों लिए युक्तियुक्त की आवश्यकता होती है। इसलिए इन निर्णयों को लेने के लिए वित्तीय प्रबन्धक में उच्चस्तरीय ज्ञान चातुर्य एवं अनुभव की आवश्यकता होती है। उपक्रम की अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए। कोशों की प्राप्ति, उचित आवंटन एवं प्रभावपूर्ण उपयोग तथा लाभ एवं सम्पदा का अधिकीकरण वित्तीय प्रबन्ध का मुख्य उद्देश होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए निम्नलिखित प्रशासकीय अथवा निर्णयात्मक कार्य करने पड़ते हैं


1. वित्तीय नियोजन (Financial Planning)


यह मूलतः निर्णय कार्य है। अतः एक वित्तीय प्रबन्धक का सर्वप्रथम कार्य उपक्रम के लिये, चाहे वह नया हो अथवा पुराना, एक सुदृढ वित्तीय योजना तैयार करना होता है। वेस्टन एवं ब्राइम के अनुसार, "नियोजन का आशय व्यवसाय के लक्ष्यों अथवा के उद्देश्यों के निर्धारण अथवा उपलब्ध विभिन्न विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चयन करने तथा उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए नीति एवं कार्यक्रमों के निर्धारण से है।" उपक्रम के संगठन एवं संचालन में वित्तीय योजना की आवश्यकता होती है। वित्तीय नियोजन कार्य में निम्नलिखित तीन कदम उठाये जाते हैं


● वित्तीय उद्देश्यों दीर्घकालीन एवं अल्पकालीन दोनों का निर्धारण,


● वित्तीय नीतियों का निरूपणा पूंजीकरण पूंजी संरचना, बित्त के स्रोत, कोषों का विनियोग, लाभांश आदि। 


● कोपों एवं अकुशलता को दूर करने के लिए पुन: नियोजन



2. वित्तीय नियंत्रण (Financial Control)


वित्तीय योजना के अन्तर्गत निर्धारित उद्देश्यों, नीतियों एवं कार्यक्रमों को सफलतापूर्वक क्रियान्वित करने के लिए वित्ती नियंत्रण आवश्यक होता है। यह वित्तीय प्रवन्ध का महत्त्वपूर्ण कार्य होता है। इसके अन्तर्गत पूर्व निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये अधीनस्थ कर्मचारियों को आवश्यक निर्देश व नेतृत्व देना, योजना के अनुसार वित्तीय प्रगति का समय-समय पर मूल्यांकन करना तथा विचलन की दशा में आवश्यक सुधार करना शामिल किया जाता है। प्रबन्ध इस कार्य के लिए मरी नियंत्रण पद्धति का प्रयोग करता है। उचित नियंत्रण के लिए वित्तीय प्रबन्धक एक प्रतिवेदन पद्धति (Reporting System) की स्थापना कर सकता है। वेस्टन एवं ब्राइम के अनुसार नियंत्रण पद्धति में(1) सूचना की प्राप्ति, (ii) सूचना का आलेखन, (ii) सूचना संग्रहण (IV) सूचना का प्रक्रियांकन (v) सूचना विश्लेषण, तथा (vi) सूचना का उपयोग सम्मिलित होता है।


3. कोषों की प्राप्ति (Acquisition of Funds)


आवश्यक कोषों की व्यवस्था करना वित्तीय प्रबन्धक का मुख्य कार्य है। इसके लिए सर्वप्रथम आवश्यक पूंजी मात्रा का निर्धारण संस्था की सम्पत्तियों (स्थायी, चालू एवं अमूर्त) में विनियोजित की जाने वाली राशि का अनुमान लगाकर किया है। इसके पश्चात् इस पूंजी मात्रा को विभिन्न स्रोतों यथा समता अंश, अधिमान अश, ऋण आदि से प्राप्त करने की व्यवस्था कीजाती है। कोषों की व्यवस्था किस स्रोत से की जाये, इसका निर्णय पूंजी की लागत, लागत की प्रकृति (स्थायी या परिवर्तनशील) तथा कोष की अवधि को ध्यान में रखकर किया जाता है। कोषों की व्यवस्था न केवल प्रारम्भिक वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए की जाती है, बल्कि भविष्य में उपक्रम के विकास, विस्तार तथा एकीकरण योजनाओं के लिए भी करनी पड़ती है।


4. कोषो का आवंटन (Allocation of Fund


प्राप्त कोषों का विभिन्न सम्पत्तियों में आवंटन करना वित्तीय प्रबन्ध का कार्य है। ये सम्पत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं स्थायी सम्पत्तियाँ एवं चालू सम्पत्तियाँ। स्थायी अथवा दीर्घकालीन सम्पत्तियों में धन लगाने या न लगाने के बारे में निर्णय इन सम्पत्तियों की लागतों एवं उनसे उदय होने वाले लाभों या प्रत्याय के आधार पर किये जाते हैं। इन्हें पूंजी बजटन निर्णय कहते हैं। चालू अथवा अल्पकालीन सम्पत्तियों में विनियोग सम्बन्धी निर्णय लाभदायकता एवं तरलता को ध्यान में रखकर किये जाते हैं। चालू सम्पत्तियों में आवश्यकता से कम विनियोग लाभदायकता की सीमा में तो वृद्धि कर देगा किन्तु समय पर चालू दायित्वों का भुगतान न कर पाने से दिवालियेपन की जोखिम एवं तरलता स्थिति को आमंत्रित करेगा। दूसरी ओर, चालू सम्पत्तियों में आवश्यकता से अधिक कोषों के विनियोग से तरलता एवं जोखिम की स्थितियों में तो सुधार होगा किन्तु साथ ही लाभदायकता की मात्रा में कमी हो जावेगी। अतः चालू सम्पत्तियों में कोषों का विनियोग करते समय वित्तीय प्रबन्धक को यह देखना होगा कि लाभदायकता, तरलता एवं जोखिम में संतुलन ब


5. आय वितरण (Distribution of Income)

इसमें यह तय किया जाता है कि शुद्ध लाभों का कितना भाग नकद लाभांश के रूप में अंशधारियों को वितरित किया जाये, कितना भाग प्रतिधारित अर्जनों के रूप में व्यवसाय में रखा जाये तथा कितना भाग कर्मचारियों को बोनस एवं लाभभागिता के रूप में वितरित किया जाये। आय वितरण का निर्णय इसका अंशधारियों की सम्पदा पर पड़ने वाले प्रभावों के आधार पर किया जाना चाहिए।


सहायक कार्य (Subsidiary Functions)


उपर्युक्त वर्णित प्रमुख कार्यों के अतिरिक्त वित्तीय प्रबन्धक को निम्नलिखित सहायक कार्यों को भी सम्पादित करना पड़ता है


1. तरलता कार्य (Liquidity Functions)


उपक्रम के लिए अपने दायित्वों का समय पर भुगतान करने तथा दैनिक कार्यों के सफल निष्पादन हेतु पर्याप्त तरलता बनाये खना आवश्यक होता है। इसके लिये रोकड़ प्रवाहों का पूर्वानुमान, कोषों का संग्रहण तथा रोकड़ अन्तर्वाहों का प्रबन्ध किया जाता है। वित्तीय प्रबन्धक को उपक्रम की तरलता बनाये रखने के लिए रोकड अन्तर्वाह (Cash Inflows) तथा रोकड़ हिर्वाह (Cash Outflows) में समन्वय स्थापित करना पड़ता है। इसके लिये वह रोकड़बजट तथा रोकड़पूर्वानुमान विधियों प्रयोग करता है।


2. लाभदायकता सम्बन्धी कार्य (Profitability Functions)


अंशधारियों में अधिकतम लाभांश वितरित करने तथा संस्था की सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि करने के उद्देश्य से वित्तीय में प्रबन्धक उपक्रम के लाभों को अधिकतम करने का कार्य करता है। वर्तमान प्रतिस्पर्धात्मक युग में संस्था के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए लाभदायकता को बनाये रखना अत्यन्त आवश्यक होता है। इसके लिये वह लाभ-नियोजन, वस्तुओं एवं सेवाओं का मूल्य निर्धारण, पूंजी लागत की गणना तथा लागत नियंत्रण जैसी तकनीकों का प्रयोग करता है। 1


3. वित्तीय निष्पादन का मूल्यांकन (Evaluaiton of Financial Performance)


वित्तीय प्रबन्ध का यह दायित्व होता है कि वह उपक्रम की वित्तीय निष्पादन का विश्लेषण करके उसके परिणामों के बारे में संचालक मण्डल को अवगत करावे। इससे त्रुटियों को प्रकाश में लाया जा सकेगा तथा भावी नीतियों और योजनाओं में परिवर्तन सम्भव हो सकेगा। वित्तीय मूल्यांकन में गत वर्ष की प्रगति की तुलना में चालू वर्ष की कार्य निष्पत्ति का समीक्षात्मक विश्लेषण किया जाता है। इसके लिए अन्तर-वर्ष तुलना एवं अन्तर- फर्म तुलना विधियों का प्रयोग किया जाता है। वित्तीय विश्लेषण के लिये वित्त प्रबन्धक द्वारा अनुपात विश्लेषण, प्रवृत्ति विश्लेषण, कोष-प्रवाह विश्लेषण, रोकड़ प्रवाहू विश्लेषण, लागत-लाभ-मात्रा विश्लेषण, विचरण विश्लेषण आदि अनेक आधुनिक विधियों का उपयोग किया जाता है।


4. अन्य विभागों से समन्वय (Co-ordination with Other Deparmtments) किसी भी उपक्रम की सफलता विभिन्न विभागों की क्रियाओं में समन्वय पर निर्भर करती है। वित्त कार्य व्यवसाय के प्रत्येक कार्य को प्रभावित करता है, अतः वित्त विभाग तथा अन्य विभागों की योजनाओं एवं क्रियाओं में अच्छा समन्वय होना चाहिए। वित्तीय प्रबन्धक का यह कर्तव्य है कि वह उपक्रम में लिये गये विभिन्न निर्णयों में इस प्रकार समन्वय स्थापित कर सके ताकि उनमें एकरूपता आ सके एवं संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक हो सके। नैत्यिक या दैनिक वित्त कार्य (Incidental or Routine Finance Functions)



इस वर्ग के अर्न्तगत वित्तीय प्रबन्ध के वे कार्य आते हैं जो दैनिक प्रकृति के होते हैं। ये कार्य प्रतिदिन निम्न स्तरीय कर्मचारियों जैसे-सहायक लेखापाल, रोकड़िया या लिपिक आदि द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं। इनकी सहायता से उच्च अधिकारियों को वित्तीय निर्णय लेने में सरलता होती है। ये कार्य अन्य निर्णयन कार्यों (Decision making Function) के पूरक होते हैं। ऐसे कार्यों के अन्तर्गत निम्नलिखित कार्य सम्मिलित किये जाते हैं-


प्रत्येक व्यवहार का लेखा करना, 

• विभिन्न वित्तीय प्रपत्र तैयार करना;


नकद शेष की व्यवस्था करना;


उधार के व्यवह रों का प्रबन्ध करना; 

● प्रतिभूतियों एवं महत्त्वपूर्ण वित्तीय प्रपत्रों को सुरक्षित रखना; • पैंशन एवं कल्याण योजनाओं का प्रशासन,


• आन्तरिक अंकेक्षण की व्यवस्था करना; 

• राजकीय नियमनों का पालन करना।


प्रशासकीय वित्त कार्यों के सम्बन्ध में निर्णय लेने के लिए मुख्य वित्तीय अधिकारी अथवा नियंत्रक ही उत्तरदायी होता है। किन्तु नैत्यिक या दैनिक कार्य निम्न स्तर पर कार्यरत व्यक्तियों द्वारा निष्पादित किये जाते हैं। नैत्यिक कार्यों में मुख्य वित्तीय अधिकारी की सम्बद्धता कुछ कार्यों जैसे प्रक्रिया नियमों का निर्धारण, प्रयुक्त प्रपत्रों का चयन, मानकों का निर्धारण आदि तक ही सीमित होती है।




वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व
(Significance of Financial Management)


वित्तीय प्रबन्ध का उद्देश्य लाभों को अधिकतम करने के साथ-साथ वित्तीय साधनों का अधिकतम उपयोग करना भी होता है। इसलिए वित्तीय प्रबन्ध का अध्ययन लाभकारी संस्थाओं एवं गैर-लाभकारी संस्थाओं, दोनों के लिए ही महत्त्वपूर्ण होता है। व्यावसायिक क्षेत्र में पिछले 50 वर्षों में तीव्र औद्योगिक विकास ने तथा भू-मण्डलीकरण (Globalisation) एवं उदारीकरण की नीति ने वित्तीय प्रबन्ध को और भी अधिक महत्त्वपूर्ण बना दिया है। आज किसी भी व्यावसायिक उपक्रम में उत्पादन, वित्त, विपणन एवं सेवावर्गिय क्रियाओं को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है, किन्तु वित्तीय प्रबन्ध को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान दिया जाता है, क्योंकि उपक्रम की अन्य सभी क्रियाओं की सफलता वित्त पर निर्भर करती है। जैसा कि इरविन फ्रेण्ड ने लिखा है, "एक फर्म की सफलता यहाँ तक कि उसका अस्तित्व, उसकी कार्यक्षमता और उत्पादन करने की इच्छा, स्थायी एवं - कार्यशील पूंजी में विनियोग करने की क्षमता पर्याप्त सीमा तक उसकी भूत एवं वर्तमान वित्तीय नीतियों द्वारा ही निर्धारित होती है। ऐसे ही विचार हस्बैंड एवं डोकरे ने व्यक्त किये हैं जिनके अनुसार, “विभिन्न आर्थिक व व्यावसायिक गतिविधियों को सूत्र में बांधने के लिए किसी ऐसे साधन की आवश्यकता होती है जो उन्हें सुचारु रूप से निर्देशित कर सके और वित्त ही वह में शक्तिशाली साधन है जो इस कार्य को सम्पन्न करता है।" इसलिये यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वित्त समस्त व्यापार, वाणिज्य एवं उद्योग की आत्मा है।


आधुनिक समय में उद्योग के संयुक्त स्वामित्त्व का विस्तार, स्वामित्व तथा प्रबन्ध की भिन्नता तथा प्रबन्ध के सामाजिक उत्तरदायित्व में वृद्धि के कारण वित्तीय प्रबन्ध का कार्य क्षेत्र केवल वित्त कार्यालयों तक ही सीमित नहीं रह गया है, बल्कि व्यावसायिक नियोजन एवं नियंत्रण की प्रत्येक क्रिया में उसकी भूमिका अत्यधिक महत्वपूर्ण हो गई है। जैसा कि प्रो. इजरा सोलोमन ने कहा है, "वित्तीय प्रबन्ध आज केवल कोषों के संग्रहण की एक विशिष्ट क्रिया मात्र ही नहीं है अपितु सम्पूर्ण प्रबन्धकीय विज्ञान का एक अंग बन गया है। यह कोर्षों के संग्रहण के साथ-साथ उत्पादन, विपणन एवं निर्णयन से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित रहता है।" इसके अतिरिक्त वित्तीय प्रबन्ध के महत्व को निम्नलिखित बिन्दुओं द्वारा और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है


1. उपक्रम की सफलता का आधार (Determination of Business Success)


सुदृढ़ वित्तीय प्रबन्ध संस्था की सफलता, अस्तित्व एवं विकास की गारंटी का सूचक है। अनेक रुग्ण इकाइयों (Sick Units) के कारणों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि उनके रुग्ण होने का प्रमुख कारण दोषपूर्ण वित्तीय प्रबन्ध ही है। सुदृढ वित्तीय प्रबन्ध द्वारा कर्मचारियों, मशीनों एवं यंत्रों का प्रभावपूर्ण उपयोग सम्भव होता है जिससे उपक्रम के विकास एवं विस्तार हेतु योजनाएँ बनाई जा सकती हैं तथा उनका सफलतापूर्वक क्रियान्वयन किया जा सकता है। 2. साधनों का अनुकूलतम उपयोग (Optimal Utilisation of Resources)


वित्तीय प्रबन्ध उपक्रम में साधनों के अनुकूलतम उपयोग पर बल देता है। वास्तव में कभी-कभी वित्त की अपर्याप्तता व्यवसाय की असफलता का कारण नहीं होती, बल्कि यह कोषों का कुप्रबन्ध ही है जो इसके लिये उत्तरदायी है। कोलीन क्स के शब्दों में, "बुरे उत्पाद प्रबन्ध एवं बुरे विक्रय प्रबन्ध के सैंकड़ों दोष होते हैं किन्तु दोषपूर्ण वित्तीय प्रबन्ध के उपक्रम में हजारों दोष होते हैं।" वित्तीय प्रबन्ध उपक्रम के साधनों के अधिकतम विदोहन एवं सदुपयोग में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत जैसे विकासशील देश में, जहाँ पूंजी सीमित है, वित्तीय साधनों का सदुपयोग विशेष महत्त्व रखता है। यह पूंजी कोषों की उत्पादकता में वृद्धि करके अधिकतम परिणाम प्राप्त करता है।


3. निर्णयन का केन्द्र बिन्दु (Focal Point of Decision making)


पहले निर्णय अन्तःप्रेरणा तथा अनुभव के आ लिये जाते थे, जबकि आधुनिक समय में निर्णयन का आधार वैज्ञानिक वित्तीय विश्लषेण है। वित्तीय प्रबन्धक उपक्रम की वित्तीय स्थिति तथा किसी निर्धारित अवधि में उसके कार्यों की प्रगति के विषय में महत्त्वपूर्ण तथ्यों एवं आंकड़ों का विश्लेषण करके वित्तीय प्रतिवेदन के रूप में प्रबन्धकों के सम्मुख रखता है। इस वैज्ञानिक विश्लेषण द्वारा संचालक मण्डल ऐसे निर्णय लेने में सक्षम होता है जिसमें न्यूनतम जोखिम होती है। इस प्रकार आधुनिक वृहद स्तरीय संगठनों में वित्तीय प्रबन्धक की निर्णय लेने में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। 4. कार्य निष्पत्ति का मापदण्ड (Measurement of Perforrnance)


व्यवसाय का प्रमुख उद्देश्य लाभ कमाना होता है। अतः आज भी उपक्रम के विभिन्न कार्यों की निष्पत्ति एवं व्यवसाय की सफलता का मूल्यांकन वित्तीय परिणामों द्वारा मापा जाता है। वित्त, लाभदायकता व जोखिम में संतुलन स्थापित करता है। जोखिम उठाये बिना लाभ नहीं होता तथा लाभ की संभावना के बिना जोखिम उठाना निरर्थक है। जोखिम में वृद्धि करने वाले वित्तीय निर्णय फर्म के मूल्यांकन स्तर को कम करते हैं। किन्तु, वित्त जोखिम व लाभदायकता के परस्पर विरोधी कारकों में संतुलन स्थापित करके फर्म के मूल्यांकन स्तर को उच्चतम से ऊपर बनाये रखने में सहायक होता है। वेस्टन एवं ब्राइघम के शब्दों में, "वित्तीय निर्णय आय की मात्रा या लाभदायकता तथा व्यावसायिक जोखिम इन दोनों को प्रभावित करते हैं। नीति विषयक निर्णय जोखिम एवं लाभदायकता पर प्रभाव डालते हैं तथा ये दोनों कारक सम्मिलित रूप से फर्म के मूल्य को निर्धारित करते हैं।'' 5. नियोजन, समन्वय एवं नियंत्रण का आधार (Basis of Planning Co-ordination and Control)


वित्तीय प्रबन्ध उपक्रम में नियोजन, समन्वय एवं नियंत्रण हेतु आधार प्रस्तुत करता है। नियोजन का उद्देश्य कोषों का प्रभावपूर्ण उपयोग होता है। जेम्स वान हॉर्न के शब्दों में, "नियोजन वित्तीय प्रबन्ध का एक जटिल आयाम है। वित्तीय पूर्वानुमानों द्वारा योजनाओं और विभिन्न बजटों का निर्माण किया जाता है जो कि नियोजन के आधार होते हैं। व्यवसाय के क्रिया-कलापों में समन्वय का कार्य बजटरी नियंत्रण द्वारा सम्पन्न किया जाता है जिसके अन्तर्गत विभिन्न कार्यों एवं उत्पादन क्रियाओं के लिये अपेक्षित समय एवं लागतों के प्रमाप निर्धारित किये जाते हैं तथा विचलन पाये जाने पर सुधारात्मक कार्यवाही की जाती है। इस प्रकार उपलब्ध साधनों का अनुकूलतम आबंटन एवं उनका अधिकतम उपयोग संभव हो जाता है।


6. सलाहकारी भूमिका (Advisory Role)


वित्तीय प्रबन्धक उच्च प्रबन्ध को सलाह देकर एक व्यावसायिक संगठन की सफलता में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। वह संस्था के विभिन्न विभागों की वित्तीय स्थिति एवं निष्पादन के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण तथ्य एवं आंकड़े उच्च प्रबन्ध को प्रस्तुत करता है। इससे उच्च प्रबन्ध को संस्था की प्रगति का मूल्यांकन करने एवं संस्था के सिद्धान्तों एवं नीतियों में उचित परिवर्तन करने में आसानी होती है। वित्तीय प्रबन्धक किसी समस्या के लिए उपलब्ध विभिन्न विकल्पों में सर्वोत्तम सम्भावित विकल्प का सुझाव देकर उच्च प्रबन्ध की निर्णयन प्रक्रिया में सहायता करता है। इस प्रकार वित्तीय प्रबन्ध विभिन्न स्तरों पर वित्तीय निर्णय लेने में प्रबन्ध के लिए सहायक होता है। 7. विभिन्न पक्षों के लिए उपयोगी (Valuable for Various Parties)


वर्तमान युग में प्रबन्ध की विभिन्न वर्गों के प्रति वित्तीय कटिबद्धता के कारण भी वित्तीय प्रबन्ध का महत्त्व बढ़ गया है, जैसा


कि निम्नांकित विवेचन से स्पष्ट है (1) व्यावसायिक प्रबन्धकों के लिए उपयोगिता : निगमित संस्थाओं में जनता के विभिन्न वर्गों की पूंजी विनियोजित होती है और प्रबन्धक उसके प्रन्यासी होते हैं जिसकी सुरक्षा का भार उन्हीं पर होता है। यदि उन्हें वित्तीय प्रबन्ध का ज्ञान होता है, तो वे वित्तीय प्रबन्ध की विभिन्न प्रविधियों के उपयोग द्वारा लाभ तथा सम्पत्ति के मूल्य को अधिकतम करके अपने दायित्वों का पालन कर सकते हैं। वित्तीय प्रबन्ध की जानकारी के बिना वे ऐसा करने में असमर्थ रहते हैं।


(ii) अंशधारियों के लिए उपयोगिता कम्पनी अथवा निगमित संस्थाओं में प्रबन्ध का कार्य अंशधारियों द्वारा चुने हुए : संचालकों द्वारा किया जाता है। यदि अंशधारियों को वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्तों की जानकारी है तो वे कंपनी की आर्थिक स्थिति का मूल्यांकन कर सकते हैं तथा वार्षिक सभा में सुझाव दे सकते हैं। किन्तु यदि उन्हें वित्तीय प्रबन्ध का ज्ञान नहीं है तो वे पूर्णतया संचालकों पर ही निर्भर रहेंगे जो उनके इस अज्ञान का लाभ उठाकर उनके साथ धोखा भी कर सकते हैं।


(ii) विनियोजकों के लिए उपयोगिता : देश के अधिकांश विनियोजक अपनी संचित पूंजी का विनियोग कम्पनियों के अंशों एवं ऋणपत्रों में करते हैं। उनका मार्गदर्शन करने के लिए उन्हें प्रतिभूति विक्रेताओं या दलालों पर निर्भर रहना पड़ता है। यदि विनियोजकों को वित्तीय प्रबन्ध के सिद्धान्त और व्यवहार का ज्ञान हो तो वे विभिन्न प्रतिभूतियों एवं उनकी संस्थाओं की तुलना करके सर्वश्रेष्ठ प्रतिभूतियों का चयन कर सकते हैं।


(iv) वित्तीय संस्थाओं के लिए उपयोगिता : विभिन्न वित्तीय संस्थाओं जैसे-व्यापारिक बैंकों, विनियोग बैंकों, प्रन्यास कम्पनियों, अभिगोपकों, स्वीकृत गृहों, बट्टा गृहों आदि के प्रबन्धकों को वित्तीय प्रबन्ध के विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता होती है। इस ज्ञान के अभाव में वे गलत प्रतिभूतियों में विनियोग कर सकते हैं अथवा ऐसी संस्थाओं को उधार दे सकते है जिनकी वित्तीय स्थिति सुदृढ़ नहीं हो अथवा गलत अभिगोपन द्वारा अधिक हानि उठाने के लिए बाध्य हो सकते हैं। यहाँ कारण है कि ऐसी संस्थाएँ वित्तीय विशेषज्ञों को ही व्यवस्थापक नियुक्त करती हैं।


(v) अर्थशास्त्रियों एवं राजनीतिज्ञों के लिए उपयोगी : प्रत्येक देश में आर्थिक विकास हेतु करोड़ों रुपयों का प्रतिव विनियोग किया जाता है। इस विनियोग की सफलता वित्तीय प्रबन्ध की प्रभावशीलता पर निर्भर करती है। वित्तीय प्रबन के ज्ञान सेराजनीतिज्ञ व अर्थशास्त्री ऐसे नीतिगत निर्णय ले सकते हैं दो देश में सर्वाधिक उपयुक्त हों।


वित्तीय प्रबन्ध की सीमायें
(Limitations of Financial Management)


ज्ञान की अन्य शाखाओं की तरह वित्तीय प्रबन्ध भी सीमाओं रहित नहीं है। यद्यपि वित्तीय प्रबन्ध के उद्गम ने प्रबन्धकीय निष्पादन में बहुत सुधार किया है, फिर भी इसे अनेक चुनौतियों एवं बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इससे वित्तीय प्रबन्ध का प्रभाव घट गया है। ऐसी सीमाएँ निम्नलिखित हैं


(1) लेखांकन अभिलेखों पर आधारित : वित्तीय प्रबन्ध में प्रयुक्त अधिकांश सूचनाएँ वित्तीय लेखांकन, लागत लेखांकन एवं अन्य ऐसे ही अभिलेखों एवं प्रलेखों से ली जाती हैं। वित्तीय प्रबन्ध में प्रयुक्त वित्तीय विवरणों का विश्लेषण एवं निर्वचन, लागत-मात्रा-लाभ विश्लेषण, बजटरी नियंत्रण जैसी तकनीकें लेखांकन अभिलेखों पर ही आधारित हैं। इसलिए इन के आधार पर लिये गये निर्णय कितने सही होंगे, यह इन सूचनाओं की शुद्धता पर निर्भर करता है।


(2) सम्बन्धित विषयों के ज्ञान का अभाव : वित्तीय प्रबन्ध अर्थशास्त्र, सांख्यिकी, प्रबन्ध आदि अन्य विषयों से सम्बन्धित है। वित्तीय प्रबन्ध का पूर्ण लाभ तभी प्राप्त हो सकता है, जब वित्तीय प्रबन्धक को इन सम्बन्धित सभी विषयों का पर्याप्त ज्ञान हो । किन्तु आज के इस विशिष्टीकरण के युग में एक व्यक्ति को इतने विषयों का ज्ञान होना बहुत कठिन प्रतीत होता है।


(3) प्रशासन का विकल्प नहीं : वित्तीय प्रबन्ध संस्था के विभिन्न विभागों की वित्तीय स्थिति एवं निष्पादन सम्बन्धी पूर्ण विश्लेषित एवं निर्वाचित सूचनाएँ उच्च प्रबन्ध का प्रस्तुत करता है। वह सर्वोत्तम सम्भावित विकल्पों का भी सुझाव देता है किन्तु अन्तिम निर्णय एवं सुधारात्मक उपाय प्रबन्ध द्वारा ही किये जाते हैं, न कि वित्तीय प्रबन्धक द्वारा। इसलिए वित्तीय प्रबन्ध प्रशासन का विकल्प नहीं है।


(4) वस्तुनिष्ठता का अभाव : वित्तीय प्रबन्ध पूर्णरूपेण व्यक्तिनिष्ठ है। वित्तीय प्रबन्धकों द्वारा लिये गये निर्णय उनके व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों, विचारों एवं मतों से प्रभावित होते हैं जो कभी-कभी संस्था के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं। इसलिए वित्तीय प्रबन्ध की सफलता वित्तीय प्रबन्धक की सूझ-बूझ, उसके ज्ञान तथा सहयोग लेने की क्षमता पर निर्भर करती है।


(5) विकासशील अवस्था : वित्तीय प्रबन्ध अभी विकासशील अवस्था में है, यह अन्तिम अवस्था में नहीं पहुँचा है। इसकी परम्पराएँ अन्य विज्ञानों की भाँति निश्चित एवं संस्थापित नहीं है। इसलिए एक अनिश्चित विज्ञान होने के कारण इसके परिणाम बहुत कुछ सीमा तक प्रबन्धकीय उपयोगों हेतु प्रयुक्त समकों के विवेकपूर्ण निर्वचन पर निर्भर करते हैं।


(6) अमितव्ययी : प्रभावी वित्तीय प्रबन्ध की संस्थापना के लिए विस्तृत संगठन एवं अनेक नियमों एवं उप-नियमों की आवश्यकता होती है। इसके लिए भारी विनियोग की आवश्यकता होती हैं जो केवल बड़ी संस्थाएँ ही कर सकती हैं। इसलिए यह एक खर्चीली पद्धति है।



वित्तीय प्रबन्ध का संगठन
(Organisation of Financial Management)


वित्तीय प्रबन्ध के संगठन का आशय वित्त विभाग द्वारा किये जाने वाले विभिन्न कार्यों का विभाजन एवं वर्गीकरण है। संगठन में वित्त विभाग की स्थिति सामान्यतः व्यवसाय के आकार एवं प्रकृति पर निर्भर करती है। छोटे उपक्रमों में जिनकी परिचालन क्रिया सरल होती है तथा अधिकारों का बहुत कम प्रत्यायोजन होता है, वहाँ वित्त कार्य को सम्पन्न करने के लिए कोई पृथक् अधिकारी नियुक्त नहीं किया जाता है। स्वयं व्यवसाय स्वामी ही समस्त वित्त कार्यों को सम्पन्न करता है। मध्यम आकार के उपक्रमों में सम्पूर्ण वित्तीय क्रियाओं को संचालित करने के लिए उच्च स्तर पर संचालक मंडल अथवा उच्च स्तरीय अधिकारी के अधीन एक पृथक् विभाग की स्थापना की जा सकती है। यह कार्य एक समिति अथवा वरिष्ठ प्रबन्धक को सौंपा जा सकता है। इसे वित्तीय नियंत्रक वित्तीय संचालक या वित्तीय प्रबन्धक के नाम से पुकारा जाता है। सभी महत्त्वपूर्ण वित्तीय निर्णय इस समिति या प्रबन्धक द्वारा लिये जाते हैं तथा नैत्यिक निर्णय (routine decisions) निम्न स्तरीय प्रबन्ध पर छोड़ दिये जाते हैं।


बड़े आकार के उपक्रमों में वित्त कार्य का संगठन करने के लिए 'वित्तीय नियंत्रक' (financial controller) तथा 'कोषाध्यक्ष' (treasurer) की नियुक्ति की जाती है। वित्तीय नियंत्रक नियोजन एवं नियंत्रण, वार्षिक प्रतिवेदन तैयार करना, पूंजी व्यय बजटन, लाभ विश्लेषण, लागत एवं स्कन्ध प्रबन्ध एवं सामान्य लेखांकन आदि कार्य करता है। कोषाध्यक्ष के मुख्य कार्यों में अतिरिक्त कोषों की प्राप्ति, रोकड़ व प्राप्यों का प्रबन्ध, अंकेक्षण, कोषों एवं प्रतिभूतियों का संरक्षण, बैंक एवं अन्य वित्तीय संस्थाओं से सम्बन्ध बनाये रखना आदि सम्मिलित हैं। वित्त कार्य का संगठन आगे दिये चित्र में दर्शाया गया है।



Arjun Singh

नमस्कार दोस्तो, मेरा नाम अर्जुन सिंह है, मैं अभी बी.कॉम से ग्रेजुएशन कर रहा हूं । मुझे लेख लिखना बहुत पसंद है इसलिय में ये ब्लॉग बनाया है, मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद!

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