बैंक एवं ग्राहक के बीच संबंध

बैंकर तथा माहक का सम्बन्ध बहुत ही महत्वपूर्ण एवं पेचीदा है जो उनके पारस्परिक अधिकारों एवं दायित्वों की व्याख्या एवं विश्लेषण पर निर्भर करता है। बैंकर तथा ग्राहक के सम्बन्ध का विवेचन करने के लिये बैंकर तथा माहक का अर्थ समझ लेना जरूरी है।


Banker Customer Relationship
Banker Customer Relationship


का अभिप्राय एवं परिभाषायें (Meaning and definitions of Banker)- बैंकर का अभिप्राय उस संस्था से लगाया जाता है जो मुद्रा का व्यवसाय करतो है, जो अपने ग्राहकों के धन को जमा पर प्राप्त करती है मांगने पर भुगतान, ऋण सुविधा तथा अन्य सेवायें प्रदान करती है। भारतीय विनिमय साध्य विलेख अधिनियम, 1881 (Indian Negotiable Instrument Act, 1881) के अनुसार बैंकर के अन्तर्गत बैंकिंग का कार्य करने वाला


प्रत्येक व्यक्ति, (संस्था) तथा प्रत्येक डाकघर, बचत बैंक सम्मिलित है। इसी प्रकार ब्रिटिश


विनिमय विपत्र अधिनियम, 1882 के अनुसार, "बैंकर के अन्तर्गत बैंकिंग का व्यवसाय करने


वाला व्यक्तियों का समूह, चाहे वह समामेलित हो अथवा नहीं, सम्मिलित होता है।"


भारतीय बैंकिंग (नियमन) अधिनियम, 1949 के अनुसार बैंकिंग का आशय उधार देने तथा विनियोजन के हेतु जनता से मुद्रा जमा पर स्वीकार करना तथा चैक, ड्राफ्ट, आदेश या अन्य प्रकार से मांगने अथवा अन्य प्रकार से वापिस पुनर्भुगतान की व्यवस्था करना है।"


इस प्रकार स्पष्ट है कि बैंकर का अभिप्राय उस संस्था अथवा व्यक्ति से लगाया जाता है जो बैंकिंग का व्यवसाय करती हुई मुद्रा का लेन देन करना उसका मुख्य व्यवसाय है। वह जनता से जमा के रूप में धन स्वीकार करता है और मांगने पर धन निकालने की सुविधा प्रदान करता है। यह प्रायः अपने नाम के साथ बैंक, बैंकिंग अथवा बैंक शब्द का प्रयोग करती है।


ग्राहक का अर्थ (Meaning of Customer) - सामान्य तौर पर कोई भी व्यक्ति अथवा संस्था बैंक का माहक माना जाता है जिसका उस बैंक में खाता होता है और उसका बैंक से नियमित व्यवहार होता है।


(A) प्राचीन विचारधारा में सर जॉन पेजेट (Sir John Paset) के अनुसार, आकस्मिक सौदा कर लेने मात्र से किसी व्यक्ति को बैंक का ग्राहक नहीं कहा जा सकता। ग्राहक होने के लिये कुछ मान्य सौदे अथवा आदत होनी आवश्यक है। "

इसी प्रकार का मत मेथ्यूज बनाम विलियन्स ब्राउन एण्ड कम्पनी विवाद 1894 निर्णय में व्यक्त किया गया कि बैंक के साथ खाता खोलकर केवल प्रथम जमा के से कोई व्यक्ति बैंक का ग्राहक होने का दावा नहीं कर सकता सौदों में नियमितता जरूपी (B) आधुनिक विचारधारा के अनुसार ज्योही कोई व्यक्ति अथवा संस्था बैंक व्यवहार


व्यवहार नियमित अथवा अनियमित हो । सेन्ट्रल बैंक ऑफ इण्डिया बनाम वी गोपीनाथ एवं अन्य के विवाद में यह निर्णय दिया गया कि बैंकिंग व्यवसाय में वह व्यक्ति माहक है जिसका धन बैंक द्वारा इस आप पर स्वीकार किया जाता है कि बैंक उसके खाते में जमा धन राशि की मात्रा तक धन वापिस करेगा चाहे उसका बैंक के साथ सम्बन्ध अल्पकालिक हो अथवा दीर्घावधि का। डॉ. ह के अनुसार एक ग्राहक वह है जिसका बैंकर के पास कोई खाता हो या जिसके लिये को वकर स्वभावतः बैंकर के रूप में कार्य करने का दायित्व अपने ऊपर लेता है।"


न्यायमूर्ति बेलाकी (Justice Baillache) के अनुसार भी “जब खाते प्रथम चैद जमा करवाया जाता है तभी चैक जमा कराने वाला व्यक्ति बैंक का ग्राहक बन जाता है। ग्राहक कहलाने की दो शर्तें-ग्राहक की कसौटी


उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बैंक का माहक वही व्यक्ति या संस्था मानी बाहों है जिसका 

(i) बैंक में अपने नाम का खाता (Account) हो तथा


(ii) जिसका बैंक के साथ बैंकिंग व्यवसाय का व्यवहार हो चाहे वह नियमित


अथवा आकस्मिक ही क्यों न हो। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि जिस व्यक्ति का बैंक में खाता न हो पर वह बैंकों द्वारा प्रदत्त जनोपयोगी सेवाओं का लाभ उठाता हो, जैसे बैंक से ड्राफ्ट बनवाना, लॉकर किराये पर लेना, अन्य व्यक्तियों से प्राप्त चैक का भुगतान लेना, अंश या ऋणपत्र खरीदने हेतु रुपये जमा करवाना आदि तो वह बैंक का ग्राहक नहीं कहा जा सकता। किसी व्यक्ति या संस्था को "ग्राहक" कहलाने के लिये जरूरी है कि (i) उस व्यक्ति या संस्था का बैंक में खाता हो चाहे वह बचत खाता हो, चालू खाता हो अथवा सावधि खाता हो; (ii) उसका बैंक के साथ बैंकिंग व्यवसाय की प्रवृत्ति का व्यवहार हो। केवल बैंकर द्वारा प्रदत्त जनोपयोगी सेवाओं का उपभोग व्यक्ति को ग्राहक नहीं बना सकता।


बैंकर तथा ग्राहक का सम्बन्ध


(Relation Between Banker and Customer)


बैंकर तथा ग्राहक का सम्बन्ध उनके पारस्परिक अधिकारों एवं दायित्वों की प्रकृति, व्याख्या एवं सीमाओं पर निर्भर करता है। आधुनिक युग में बैंकों के कार्यों में विविधता तथा व्यापकता के कारण बैंकर तथा ग्राहक का सम्बन्ध भी बड़ा पेचीदा एवं बहुआयामी बन गया है। जहाँ एक ओर वे ऋणदाता एवं ऋणी हैं, तो दूसरी ओर बैंकर ग्राहक के लिये कभी प्रन्यासी (Trustee) और कभी सलाहकार या कभी अभिकर्ता (Agent) के रूप में कार्ब करता है। अतः अध्ययन की दृष्टि से हम तथा प्राहक सम्बन्धों को दो वर्गों में विभाजित कर सकते हैं|


बैंकर तथा ग्राहक का सम्बन्ध


(A) सामान्य सम्वन्ध


(B) विशेष सम्बन्ध


(General Relationship)


(1) ऋणदाता एवं ऋणीका सम्बन्ध (1) बैंकर के अधिकार


(Special Relationship)


(2) अभिकर्ता के रूप में सम्बन्ध


(2) बैंकर के दायित्व


(3) प्रन्यासी के रूप में सम्बन्ध


(4) परामर्शदाता के रूप में सम्बन्ध


इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है


(A) सामान्य सम्बन्ध


(General Relationship)


सामान्य सम्बन्धों में हम बैंकर तथा प्राहक के उन सम्बन्धों का समावेश करते हैं जो बैंक तथा ग्राहक के बीच ऋणदाता एवं ऋणी, अभिकर्ता के रूप में बैंकर प्रन्यासी के रूप में बैंकर तथा परामर्शदाता के रूप में बैंकर की व्याख्या करते हैं


(1) ऋणदाता तथा ऋणी का सम्बन्ध


(Relationship as a Creditor and Debtor).


बैंक तथा माहक के बीच सबसे महत्वपूर्ण सम्बन्ध ऋणी एवं ऋणदाता के रूप में होता है। जब माहक बैंक में खाता खोलकर धन जमा करवाता है तो बैंक ऋणी एवं ग्राहक ऋणदाता बन जाता है पर जब माहक बैंक से अपनी जमा से अधिक धन निकलवाता है तो माहक ऋणी एवं बैंक ऋणदाता का रूप धारण कर लेता है। इसी कारण सर जॉन पेजेट (John Peset) ने कहा है कि "बैंक तथा ग्राहक का सम्बन्ध प्रमुख रूप से ऋणी एवं ऋणदाता का है एक दूसरे की स्थिति ग्राहक के खाते की तात्कालिक स्थिति से निश्चित की जाती है।"


फॉले बनाम हिल (Folley V/s Hill) के फैसले में बैंकर तथा माहक का सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए लिखा कि "जब राशि बैंक में जमा करा दी जाती है तो यह जमाकर्ता की नहीं, बैंक की हो जाती है। बैंक को इस राशि के बराबर की रकम मांग करने पर लौटानी होगी। बैंक इसे स्वयं की राशि की तरह उपयोग में ले सकता है, विनियोजन से लाभ भी कमाता है जो स्वयं का होता है। "प्रचलित पद्धति के आधार पर वह मूलधन एवं साधारण ब्याज सहित वापिस कर देता है। बैंकर एवं ग्राहक के बीच उक्त स्थिति में बैंकर न कोई अभिकर्ता और न कोई दलाल वरन् वह एक ऋणी होता है।


बैंकर तथा ग्राहक के ऋणी एवं ऋणदाता सम्बन्ध की विशेषताएँ


(Characteristics of Debtor-Creditor Relationship) बैंकर तथा ग्राहक के ऋणी एवं ऋणदाता के रूप में सम्बन्धों की अमलिखित प्रमुख विशेषताएँ हैं-


(1) बैंकर और पाक अपने खाते में बैलेन्स की स्थिति के अनुसार फ्राणी एवं दोनों हो सकते हैं। जब बैंक में खाता खोल रकम जमा कराता है ले बैंकणी एवं है पर जब बैंक से अपने जमा धन से अधिक का आहरण करता है तो बैंक ऋणदाता एवं माहक ऋणी हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि दोनों में कौन ऋणी और कौन बनाता है यह ग्राहक के खाते में शेष राशि (Balance amount in account) की स्थिति पर निर्भर करता है।


(II) जमा राशि घाहक द्वारा मांग पर ही देय है (Deposits are payable on demand only) – यह सर्वमान्य सिद्धान्त है कि बैंकर प्राहक को उसकी जमा राशि वि मांगे चुकाने को नाम नहीं है और न बैंक अपनी इच्छानुसार ग्राहकों को अपनी जमा वापिस कर सकते हैं। यही कारण है कि बैंकर अपने ग्राहकों की मांग पर ही जमा धन का भुगतार करते हैं।


इस सम्बन्ध में जोचिमसन V/s स्विस बैंकिंग कॉरपोरेशन में दिया गया फैसला स्पष्ट करता है कि "ग्राहक एवं बैंकर का सम्बन्ध एक ऋणदाता एवं ऋणी का होता है किन्तु इस गर्मित अनुवन्ध में एक अनिवार्य शर्त यह है कि बैंक को उधार दी गई रकम मांग के अतिरिक्त देय नहीं होगी।"


(iii) मांग का समय एवं स्थान उपयुक्त हो (Demand at proper place and time) – माइक द्वारा अपने बैंकर से अपनी जमा भुगतान की मांग उपयुक्त स्थान एवं उपयुक्त समय पर होनी चाहिये। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि ग्राहक द्वारा जमा के भुगतान की मांग उसी शाखा पर करनी होगी जहां उसका खाता है और मांग का समय भी बकिंग कार्यावध (Banking Hours) में होता है। बैंकिंग कार्यावधि के पश्चात् तथा अन्यत्र शाखा से भुगतान की मांग मान्य नहीं।


इण्डो एलाइड इन्डस्ट्रीज बनाम पंजाब नेशनल बैंक 1970 के विवाद के निर्णय में स्पष्ट किया गया कि “किसी विपरीत आशय के अभाव में किसी बैंकिंग कम्पनी की किसी शाखा पर खाता खोलने वाले ग्राहक के साथ एक गर्भित प्रसंविदा होता है कि वह प्राहक को केवल उसी शाखा पर भुगतान करे जहां उसका खाता खोला गया है। यह बैंकिंग कार्य-काल में भुगतान योग्य है तथा इस राशि का भुगतान प्राहक के लिखित आदेश पर किया जायेगा।"


इसी प्रकार का निर्णय जोचियसन बनाम स्विस बैंकिंग कॉरपोरेशन के विवाद में दिया गया कि धन वापिस चुकाने का वचन बैंक की उसी शाखा पर होता है जिसमें ग्राहक का खाता होता है, रकम वापसी की मांग कार्यदिवस को कामकाज के समय में ही की जानी चाहिये।


(iv) भुगतान की मांग उपयुक्त ढंग से होनी चाहिये (Demand of payment should be in proper manner) भारतीय बैंकिंग अधिनियम के अनुसार ग्राहक अपनी जना राशि के भुगतान की मांग बैंक के निर्धारित प्रपत्रों के माध्यम से ही कर सकता है। अन्य प्रकार से मांग, जैसे-टेलीफोन, मौखिक अथवा निर्धारित प्रपत्रों के अतिरिक्त अन्य फार्म के लिखित आदेश पर भी बैंकर भुगतान के लिये बाध्य नहीं है।


(v) जमा का पर समय सीमा अभिनय (Law of limitation on deposit) ग्राहक द्वारा बैंक में जमा धन पर समय सीमा कानून उसके भुगतान के गांग की तिथि से ही लागू होता है और मांग तिथि के दिन में तीनको अवधि तक ही बैंक के विरुद्ध बाद किया जा सकता है। मांग के तीन वर्ष के बाद यह सम (Time Barred) हो जाने से वसूली के लिये बैंक पर मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। यह उल्लेखनीय है कि अगर माहक द्वारा अपने जमा भन के भुगतान की मांग नहीं को जाती तो प्राहक द्वारा जमा राशि बैंक के जीवनकाल तक बनी रहेगी। गांग करने पर ही उस पर समय-सीमा कानून लागू होता है।


(vi) बैंक तथा हक के पारस्परिक दायित्व (Mutual Responsibilitics of Banker and Customer) बैंकर महक का खाता खोलने के साथ दायित्व लेता है कि वह ग्राहक को मांग पर भुगतान करेगा। साहक के वैध आदेशों का पालन करेगा और उसे अन्य बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध करेगा जबकि ग्राहक का दायित्व होता है कि वह भुगतान की मांग उपयुक्त स्थान, समय एवं निर्धारित प्रपत्रों में लिखित आदेश द्वारा करेगा। बैंकर तथा माहक का दायित्व पूर्ण सावधानी बरतने का भी है।


(2) अभिकर्ता के रूप में बैंकर तथा प्राहक का सम्बन्ध (Relationship of Banker as an Agent)


आधुनिक युग में बैंकों के कार्यों में इतनी अधिक विविधता एवं व्यापकता आई है कि अब माहक एवं बैंकर का सम्बन्ध केवल ऋणी एवं ऋणदाता तक सीमित नहीं रहा। अब बैंकर अपने ग्राहक के अभिकर्ता के रूप में कई कार्य करता है जो संक्षेप में इस प्रकार हैं


(i) ग्राहक के बिलों, बैंकों, हुण्डियों, प्रतिज्ञापत्रों आदि का भुगतान लेना;


(ii) ग्राहक की ओर से ब्याज, बीमा, किराया, चन्दा तथा ऋणों की किस्तों का


भुगतान करना; (iii) माहक की ओर से अंशों, ऋणपत्रों, बॉण्डों तथा अन्य प्रतिभूतियों का क्रय-विक्रय करना;


(iv) माहक के लिये ब्याज, लाभांश, किराया, ऋण की किस्तें आदि वसूल करना: (v) माहक के लिये धन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेजना तथा


(vi) माहक के एजेन्ट के रूप में अन्य कोई कार्य करना। जब बैंकर ग्राहक के अभिकर्ता के रूप में कार्य करता है तो उन दोनों के सम्बन्ध


एजेन्ट तथा प्रधान के रूप में होते हैं और बैंकर को ऐसी स्थिति में माहक के आदेशानुसार ही कार्य करना चाहिये अन्यथा माहक बैंक को कभी भी अपनी क्षतिपूर्ति के लिये उत्तरदायी ठहरा सकता है अतः बैंकर को सावधानी रखना जरूरी है। इनमें कुछ इस प्रकार हैं


(1) स्पष्ट आदेश पर कार्य बैंकर को एजेन्ट के रूप में कार्य करते समय ग्राहक से


स्पष्ट आदेशों की आवश्यकता होती है। अगर ये आदेश लिखित हों तो और भी अच्छा है।


मौखिक आदेशों को भी यथासम्भव लिपिबद्ध कर लेना चाहिये। (ii) खर्चा तथा पारिश्रमिक की वसूली- अभिकर्ता के रूप में कार्य करने पर बैंकर को ग्राहक से खर्चों तथा पारिश्रमिक की वसूली का अधिकार होता है।

(III) लापरवाही एवं कपटपूर्ण व्यवहार के लिये क्षतिपूर्ति का उत्तरदायित्व अभिकर्ता के रूप में कार्य करते समय अगर बैंकर के कपटपूर्ण व्यवहार अथवा लापरवाही से प्राहक को क्षति होती है तो भारतीय अनुवन्ध एक्ट (Indian Contract Act) की धारा 162 के के अन्तर्गत बैंकर क्षतिपूर्ति के लिये उत्तरदायी होता है।


(3) प्रन्यासी के रूप में बैंकर तथा ग्राहक का सम्बन्ध


(Relationship of Banker as a Trustee) आजकल बैंक एक ट्रस्टी के रूप में अपने ग्राहकों को कई जनोपयोगी सेवायें उपलब्ध करते हैं। बैंकर साहकों के बहुमूल्य आभूषण, महत्वपूर्ण प्रपत्र तथा धन आदि सुरक्षित रखते हैं तथा मांगने पर वापिस लौटाने का दायित्व लेते हैं। सुरक्षार्थ रखी वस्तुओं पर स्वामित्व तो ग्राहक का होता है पर बैंकर उनके लिये एक प्रत्यासी के रूप में कार्य करता है।


बैंकर को ग्राहक के लिये प्रन्यासी के रूप में कार्य करने में पर्याप्त सावधानी रखनी


चाहिये। निम्नलिखित सावधानिय महत्वपूर्ण है---- (i) सुरक्षार्थ प्राप्त वस्तुओं की उपयुक्त प्रविष्टि (Proper Entry) बैंकको अपने ग्राहकों से सुरक्षार्थ प्राप्त वस्तुओं की प्रविष्टि (Entry) सेफ कस्टडी रजिस्टर (Safee Custody Register) में करके जमाकर्ता ग्राहक के हस्ताक्षर उस रजिस्टर में करवा लेन चाहिये तथा वापिस लौटाने पर भी वापसी के हस्ताक्षर करवा लेना जरूरी है।


(ii) सम्पत्ति की सुरक्षा (Safety of Property) - सुरक्षा के लिये जमा वस्तुओं


एवं सम्पत्ति की रक्षा बैंक को उसी प्रकार करनी चाहिये जैसे एक व्यक्ति अपनी स्वयं की


सम्पत्ति की करता है। लापरवाही के कारण होने वाली क्षति के लिये बैंकर उत्तरदायी होगा। (iii) निरीक्षण की सुविधा (Facility of Inspection) - बैंकर को प्राहक द्वारा सुरक्षार्थ रखी वस्तुओं के निरीक्षण की सुविधा देनी चाहिये।


(iv) सुरक्षार्थ सम्पत्ति की वापसी (Handing over of property) - बैंकर पर अपने पास सुरक्षार्थ रखी सम्पत्ति को उसके जमा कराने वाले स्वामी अथवा उसके द्वारा अधिकृत व्यक्ति को मांगने पर वापिस लौटाने का दायित्व है। ग्राहक की मृत्यु पर उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति को और मनोनयन न होने पर उचित उत्तराधिकार प्रमाण पत्र वाले उत्तराधिकारी को लौटानी होगी। संयुक्त नाम से जमा सम्पत्ति को सभी की विना शर्त सहमति पर लौटाने का दायित्व बनता है। अनाधिकृत व्यक्ति को सम्पत्ति लौटाने पर बैंकर • क्षतिपूर्ति का उत्तरदायी होगा।


(v) क्षतिपूर्ति का उत्तरदायित्व (Liability of Compensation) - जब बैंक की लापरवाही अथवा अनियमितता के कारण सुरक्षार्थ जमा सम्पत्ति गुम हो जाये अथवा उसको कोई क्षति पहुंचे तो बैंकर उसकी क्षतिपूर्ति के लिये उत्तरदायी होगा।


(vi) किसी विशेष उद्देश्य से रखी धरोहर (For Specific Purpose) जव ग्राहक बैंकर के पास कोई धरोहर विशेष उद्देश्य से रखता है तो बैंकर पर उसके सुरक्षा का पूर्ण दायित्व होता है और वह उसके लिये पारिश्रमिक वसूल कर सकता है। घरोहर रखी सम्पत्ति को बैंकर की लापरवाही एवं असावधानी से हानि पहुँचाने पर वह क्षतिपूर्ति के लिये उत्तरदायी होगा।


(4) परामर्शदाता के रूप में बैंकर तथा ग्राहक के सम्बन्ध (Relationship of Banker as an Advisor) बैंकिंग व्यवसाय की जटिलताओं एवं वित्तीय मामलों की विशिष्टता के कारण


आधुनिक बैंक अपने ग्राहकों के लिये परामर्शदाता के रूप में भी कार्य करते हैं। बहुत से बड़े बैंक अपने को परामर्श देने के लिये एक अलग परामर्श प्रकोष्ठ (Advisory Celly को भी स्थापना करते हैं। ये बैंक पाठकों को अपनी पूंजी विनियोजन की सलाह देते है। वित्तीय मामलों के निपटारे की सलाह देते हैं।


बैंकर को अपने ग्राहक को बड़ी सावधानी एवं ईमानदारी से सलाह देनी चाहिये


और कोई ऐसा तथ्य नहीं छिपाना चाहिये जिससे ग्राहक के हितों को क्षति पहुंचे। ऐसा न


होने पर बैंकर को उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।


युइस V/s मार्टिन्स बैंक लि. विवाद में दिये गये निर्णय के अनुसार बैंक के मैनेजर श्री जॉनसन की सलाह पर वुड्स नामक माहक ने बी. आर. लि. को 3000 पौण्ड का ऋण दिया तथा 11,800 पौण्ड के उसके अंश क्रय किये। इसमें बैंक मैनेजर को सलाह में तथ्य छिपाने और लापरवाही बरतने का दोषी पाया जाने से बुद्धस को क्षतिपूर्ति के लिये बैंक मैनेजर को ठहराया गया। अतः स्पष्ट है कि बैंकर को परामर्शदाता के रूप में कार्य करते समय सावधानी,


ईमानदारी तथा सतर्कतापूर्ण सलाह देनी चाहिये और कोई ऐसा तथ्य नहीं छिपाना चाहिये


जिससे ग्राहक के हितों को क्षति पहुंचे।


(B) बैंकर तथा ग्राहक के विशिष्ट सम्बन्ध (Special Relationship of Banker and Customer)


बैंकर तथा ग्राहक के विशेष सम्बन्ध बैंकों के अधिकारों तथा उनके दायित्वों के कारण उत्पन्न होते हैं जो आधुनिक बैंकिंग व्यवसाय की विविधता एवं व्यापकता के साथ विकसित हुए हैं। ये विशिष्ट सम्बन्ध संक्षेप में इस प्रकार हैं


बैंकर तथा ग्राहक के विशिष्ट सम्बन्ध


बैंकर के अधिकार


बैंकर के दायित्व


(Rights of Bankers)


(Obligations of Banker)


(1) महणाधिकार


(1) चैक भुगतान का दायित्व


(2) भुगतान नियोजन का अधिकार


(2) अनुचित अनादरण का दायित्व


(3) समायोजन अथवा प्रतिसाद का अधिकार (3) खातों की गोपनीयता का दायित्व


(4) व्याज, कमीशन एवं अन्य आकस्मिक (4) अनुचित जानकारी का दायित्व


प्रभार का अधिकार


(5) परिसीमा अवधि के अधिकार


(5) कुर्की आदेश पर दायित्व



इनका संक्षिप्त विवरण निम्नांकित प्रकार है


बैंकर के अधिकार (Rights of Banker)


को अपने ग्राहक के विरुद्ध पांच प्रकार के वैधानिक अधिकार प्राप्त है जिनमें (i) महणाधिकार, (i) भुगतान नियोजन का अधिकार, (ii) समायोजन एवं प्रतिसाद का अधिकार, (iv) अपने द्वारा प्रदत्त सेवाओं के लिये कमीशन, आणों पर ब्याज एवं अन्य आकस्मिक प्रचार का अधिकार तथा (v) परिसीमा अवधि सम्बन्धी अधिकार शामिल हैं।


(1) बैंकर का ग्राहक के विरुद्ध ग्रहणाधिकार


(Banker's Right of Lien against the Customer) बैंकर तथा ग्राहक का सम्बन्ध चूंकि अनुबन्ध पर आधारित है अतः भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 की धारा 171 के अन्तर्गत बैंकर को अपने ग्राहक के विरुद्ध ग्राहक द्वारा बैंकर के पास रखो गई सम्पत्ति को स्पष्ट निर्देशों एवं विशेष उद्देश्य के अभाव में तब तक रोके रखने का अधिकार है जब तक कि वह बैंकर के बकाया ऋणों का भुगतान न कर दे।


बैंकिंग शब्दावली के अनुसार महणाधिकार (Right of Lien) का अभिप्राय दूसरे की सम्पत्ति को उस समय तक रोके रखने के अधिकार से है जब तक कि वह दूसरा व्यक्ति अपने बकाया ऋणों का भुगतान न कर दें। इस सन्दर्भ में बैंकर का महणाधिकार ग्राहक की उन सब सम्पत्तियों पर लागू होता है जो ग्राहक ने बैंकर के रूप में उसे सौंपा हो और उसके


लिये कोई स्पष्ट अथवा विशेष निर्देश न हो ।


महणाधिकार के दो रूप हैं--(i) सामान्य महणाधिकार तथा (ii) विशिष्ट ग्रहणाधिकार।


(1) सामान्य ग्रहणाधिकार (Right of General Lien) भारतीय अनुबन्ध अधिनियम 1872 की धारा 171 के अनुसार बैंकर को ग्राहक के विरुद्ध सामान्य ग्रहणाधिकार (Right of General Lien) प्राप्त है। येण्डो बनाम वार्नेट (Brando V/s Barnett) विवाद में दिये निर्णय के अनुसार, "जब तक कोई स्पष्ट आशय का अनुबन्ध न हो अथवा ग्रहणाधिकार के असंगत गर्भित अनुबन्ध सम्बन्धी परिस्थितियां न हों, बैंकर को निश्चित रूप में ग्राहक की उन सम्पूर्ण सम्पत्ति एवं प्रतिभूतियों पर सामान्य ग्रहणाधिकार प्राप्त होता है जो ग्राहक ने बकरे के रूप में उसके पास जमा कराई है।" यह उल्लेखनीय है कि स्पष्ट अथवा गर्भित अनुबन्ध के अभाव में सामान्य ग्रहणाधिकार चल सम्पत्तियों पर भी लागू होता है। (ii) विशिष्ट ग्रहणाधिकार (Special Right of Licn) बैंकर को विशिष्ट ग्रहणाधिकार तब प्राप्त होता है जब बैंकर ने अपने पास रखी सम्पत्ति को प्राप्त करने में धन लगाया हो अथवा उस सम्पत्ति को प्राप्त करने में कोई विशेष कार्य किया हो।


ग्रहणाधिकार की प्रमुख विशेषताएँ


(Main Characteristics of Right of Lien)


(1) बैंकर को सामान्य ग्रहणाधिकार (General Right of Lien) भारतीय अनुवन्ध अधिनियम 1872 की धारा 171 से प्राप्त होता है।


(2) बैंकर को सामान्य ग्रहणाधिकार उस सम्पत्ति एवं जमा पर लागू होता है जो ग्राहक ने बैंकर के रूप उसे जमा कराई हो तथा उसके लिये कोई विशेष उद्देश्य एवं स्पष्ट निर्देश न हो। बैंकर उस सम्पत्ति को तब तक रोके रख सकता है जब तक कि उसके ऋणों का भुगतान न हो जाये। (3) बैंकर का सामान्य प्रहणाधिकार प्राहक के नाम में जमा सम्पत्ति एवं प्रतिभूतियों पर ही लागू होता है। संयुक्त रूप में जमा सम्पत्तियों अथवा माहक के नजदीकी सम्बन्धियों के नाम जमा सम्पत्तियों पर ग्राहक के ऋणों की वसूली के लिये महणाधिकार लागू नहीं


होता (4) बैंकर को पहणाधिकार में विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। वह पाठक को उचित सूचना देकर उसकी जमा सम्पत्ति एवं प्रतिभूतियों को बेच सकता है।


(5) बैंकर का प्रहणाधिकार उसी सम्पत्ति पर मान्य है जो ग्राहक ने उसके पास बैंकर के रूप में जमा कराई हो। ट्रस्ट, सुरक्षा अथवा विशेष उद्देश्य से जमा सम्पत्ति पर बैंकर का महणाधिकार मान्य नहीं होता। यही कारण है कि ग्रहणाधिकार के कुछ अपवाद है।


बैंकर के ग्रहणाधिकार के अपवाद


(Exceptions of Banker's Right of Lien)


निम्नलिखित परिस्थितियों में बैंकर का महणाधिकार लागू नहीं होता अतः


महणाधिकार के ये अपवाद महत्वपूर्ण हैं (1) सुरक्षा हेतु जमा सम्पत्ति जब ग्राहक अपनी मूल्यवान वस्तुएँ, दस्तावेज अथवा आभूषण बैंकर के पास सुरक्षा (Safe Custody) हेतु सौंपता है तो बैंकर उसके लिये ट्रस्टी के रूप में कार्य करता है अतः बैंक को ऐसी जमा सम्पत्ति के लिये प्रहणाधिकार प्राप्त नहीं होता।


(2) विशेष उद्देश्य अथवा विशिष्ट निर्देशों से सौंपी सम्पत्ति पर भी बैंकर का


महणाधिकार लागू नहीं होता क्योंकि यह एक प्रकार से विशिष्ट अनुबन्ध से सौंपी सम्पत्ति होती है जिसका विशेष प्रयोजन है। (3) ट्रस्ट खाते में जमा सम्पत्ति जब ग्राहक किसी अन्य व्यक्ति के ट्रस्टी के रूप में खाता खोलता है अथवा सम्पत्ति जमा करवाता है तो ऐसे खाते में जमा धन एवं सम्पत्ति


पर बैंकर का ग्रहणाधिकार लागू नहीं होता क्योंकि ऐसी सम्पत्ति ट्रस्टी के रूप में है। (4) भूल से छोड़ी अथवा जोर-जबरदस्ती से छीनी ग्राहक की वस्तुओं एवं सम्पत्ति


पर बैंकर का ग्रहणाधिकार लागू नहीं होता। (5) अपरिपक्व ऋण अथवा अस्वीकृत ऋण की प्रतिभूति के रूप में जमा सम्पत्ति


या प्रतिभूतियों पर भी बैंकर का ग्रहणाधिकार लागू नहीं होता क्योंकि यदि ऋण की देय तिथि दूर हो अथवा ऋण स्वीकृति के लिये सुरक्षार्थ रखी गई प्रतिभूतियों पर बैंकर का महणाधिकार तब तक मान्य नहीं जब तक ऋण भुगतान की देय तिथि नहीं आती अथवा ॠण स्वीकृत नहीं हो जाता।


(6) विक्रय के उद्देश्य से जमा सम्पत्ति जब माहक कोई वस्तु, सम्पत्ति या तिभूतियाँ बैंकर के पास विक्रयार्थ सौंपता है तो इस प्रकार विशेष उद्देश्य से जमा सम्पत्ति र बैंकर का महणाधिकार लागू नहीं होता। साइमन्स बनाम मुल्कर्न (Siemans V/s Mulkern) विवाद में यह निर्णय दिया गया कि विक्रय के उद्देश्य से जमा प्रतिभूतियों पर कर का ग्रहणाधिकार नहीं हो सकता।

(7) अथवा अन्य व्यक्तियों के साथ जमा सम्मति पर भी का कार लागू नहीं होता। वोलेस्टेनफीडबैंक शिवाद के निर्णय में इस त की पुति की गई थी।


(8) ग्राहक केत अधिकार वाली सम्पत्ति पर बैंक का महणाधिकार समाप्त नहीं होता किन्तु नेचान सायप्रतिभूतियों पर यह नियम लागू नहीं होता यदि बैंक ने उन्हें विश्वास से मूल्य चुकाकर सावधानीपूर्वक प्राप्त की हो। (2) बैंकर का ग्राहक के भुगतानों के नियोजन का अधिकार


(Banker's Right of Appropriation of Payments) जम किसी माहक के किसी बैंक शाखा में अलग-अलग कई खाते हो और माह अलग-अलग तिथियों पर लिये गये ऋणों के भुगतान में बिना किसी स्पष्ट निर्देशों के धनराशि जमा कराता हो तो बैंकर को ग्राहक के विभिन्न भुगतानों को अपने विवेक एवं इच्छानुसार नियोजन (Appropriation) का विशेषाधिकार प्राप्त होता है। क्लेटन विवाद (Clayton's case) में विद्वान न्यायाधीश ने निर्णय दिया कि “स्पष्ट निर्देश के अभाव में बैंक प्रत्येक भुगतान राशि को सबसे पहले देय ऋण का भुगतान मानेगा और जमा प्रविष्टि


द्वारा नाम प्रविष्टि का समायोजन क्रमानुसार (Chronological order) होगा।" इससे स्पष्ट है कि बैंक को माहक के भुगतानों के नियोजन का अधिकार अपने विवेक एवं इच्छा से करने का तभी प्राप्त होता है जब माहक के स्पष्ट अथवा गर्भित निर्देशों का अभाव हो। इस सन्दर्भ में बैंकर को निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिये


(1) ग्राहक के निर्देशानुसार भुगतानों का नियोजन जब ग्राहक के किसी बैंक शाखा में कई खाते हों तो बैंकर को ग्राहक के स्पष्ट निर्देशानुसार अथवा परिस्थिति गर्भित निर्देश के अनुसार ही भुगतानों का नियोजन करना चाहिये।


(ii) निर्देशों के अभाव में बैंकर को अपने विवेक एवं क्लेटन विवाद के


निर्णयानुसार भुगतानों का समायोजन करना चाहिये। बैंकर ऐसे भुगतानों का नियोजन समयावधि पार ऋणों (Time Barred) के भुगतानों में भी कर सकता है और माहक को सूचना दे देनी चाहिये।


(ii) ग्राहक से प्राप्त भुगतानों का नियोजन पहले ब्याज भुगतान तथा शेष बची राशि का उपयोग क्लेटन विवाद निर्णयानुसार किया जा सकता है।


(iv) अगर ग्राहक के निर्देश न हो तथा बैंक ने भी अपने विवेक से निर्णय न लिया हो तो भुगतानों का नियोजन क्लेटन केस के निर्णयानुसार होगा।


(v) बैंकर द्वारा इच्छानुसार नियोजन की सूचना जब कोई बैंकर ग्राहक के भुगतानों का नियोजन क्लेटन विवाद के निर्णयानुसार नहीं करता बल्कि अपने विवेक एवं स्वेच्छानुसार करता है तो उसकी ग्राहक को सूचना देना आवश्यक है। पुष्टि कराना बैंकर के हित में है।


(vi) नये खाते पर नियोजन सम्भव नहीं- पुराने भुगतानों का नये खाते में नियोजन संभव नहीं होता। वे पुराने खातों के भुगतानों में ही समायोजित हो सकते हैं।


(3) बैंकर का समायोजन अथवा प्रतिसाद का अधिकार (Banker's Right of Adjustment or Set-off)


बैंकर को यह वैधानिक अधिकार प्राप्त है कि वह अपने किसी माहक के विभिन्न खातों में जमा राशि को उसी ग्राहक के नाम शेष वाले खातों से परस्पर प्रतिसाद/समायोजन कर सकता है। उदाहरणार्थ, एक माहक के एक खाते में 2 लाख रु. का जमा शेष है तथा उसी बैंक के दूसरे खाते में 4 लाख रु का नाम शेष है तो बैंकर को जमा शेष खाते की राशि को नाम शेष वाले खाते में स्थानान्तरित करके 2 लाख रुपये का प्रतिसाद (sct-off) करने का अधिकार है तथा 2 लाख रु. शेष राशि की वसूली के लिये दावा कर सकता है।


यहाँ यह उल्लेखनीय है कि बैंकर का समायोजन अथवा प्रतिसाद (set-off) का अधिकार माहक के न केवल एक ही शाखा के विभिन्न खातों पर लागू होता है वरन् उसी बैंक की अन्य शाखाओं में खोले गये पाहक के विभिन्न खातों पर भी समान रूप से लागू होता है बशर्ते कि ग्राहक के ये खाते उसी के नाम से हों और उन खातों में जमा राशि ट्रस्ट के रूप में न हो। इस विवरण से हम बैंकर के प्रतिसाद करने के अधिकार में निम्नलिखित शर्तें आवश्यक मानते हैं


बैंकर के समायोजन अथवा प्रतिसाद अधिकार की शर्ते (Essential Conditions for Adjustment or Set-off by Banker) (1) विभिन्न खाते उसी ग्राहक के नाम के हों-बैंकर ग्राहक के विभिन्न खातों में समायोजन का अधिकार तभी लागू कर सकता है जब वे विभिन्न खाते उसी ग्राहक के नाम में खोले गये हों।


(2) विभिन्न खाते उसी बैंक अथवा उसकी शाखाओं में ही हों-बैंक के समायोजन का अधिकार तभी संभव है जब ग्राहक के विभिन्न खाते उसी बैंक अथवा उसकी किसी भी शाखा में हो। अगर अन्य बैंकों में हो तो यह अधिकार लागू नहीं होगा।


(3) विपरीत अनुवन्ध न हो बैंकर का समायोजन का अधिकार तभी प्रभावी होगा जब उस अधिकार के विपरीत माहक और बैंकर के बीच कोई अन्य समझौता न हो।


(4) ग्राहक का खाता प्रन्यासी (ट्रस्ट) के रूप में न हो-चैंकर का समायोजन अधिकार उन्हीं खातों पर लागू होता है, जो ग्राहक के स्वयं की हैसियत में हो। प्रन्यासी के रूप में अन्य व्यक्तियों की जमाओं के खाते पर बैंकर का यह अधिकार लागू नहीं होगा।


(5) संयुक्त खाते का समायोजन एकाकी खाते में संभव नहीं और न एकाकी खाते का समायोजन संयुक्त खाते में संभव है। जब ऋण भुगतान का दायित्व पृथक् संयुक्त दोनों रूपों में हो तो समायोजन अधिकार लागू होता है।


(6) परिपक्व एवं निश्चित ऋण दायित्व होने पर ही समायोजन अधिकार लागू होता है। जो ऋण भविष्य में परिपक्व हो अथवा जिस ऋण दायित्व का भुगतान अभी बकाया ही न हो तो बैंकर का समायोजन का अधिकार नहीं होगा। 

(7) कुर्की होने पर केवल शेष राशि पर ही समायोजन अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है।

(4) बैंकर का ग्राहक से ब्याज, कमीशन एवं अन्य आकस्मिक प्रभार का अधिकार (Banker's Right to Charge Interest, Commission and other


Incidental Charges from the Customers) बैंकर को अपने माहकों को दिये गये ऋणों तथा अधिविकर्ष पर ब्याज वसूल करने का गर्भित अधिकार प्राप्त है। इसी प्रकार बैंकर द्वारा कमीशन आधार पर प्रदत्त सेवाओं के लिये कमीशन लेने का भी अधिकार होता है। यही नहीं, बैंकर द्वारा अपने ग्राहकों को दी जाने वाली अन्य सेवाओं के प्रतिफल के रूप में शुल्क तथा अन्य आनुषंगिक व्यय वसूल


करने का अधिकार होता है।


(5) बैंकर के लिये परिसीमा अवधि


(Period of Limitation) परिसीमा अधिनियम 1963 के अनुसार बैंकर के लिये भुगतान वसूल करने की परिसीमा अवधि तीन वर्ष है जो ऋण की देय तिथि से आगे मानी जाती है। इसी प्रकार बैंकर द्वारा ग्राहक को धनराशियां भुगतान की परिसीमा अवधि भी तीन वर्ष है जो ग्राहक द्वारा धन की मांग करने की तिथि से मानी जाती है। ग्राहक द्वारा मांग न करने पर बैंकर को ग्राहक की जमा राशि अक्षुण्ण बनाये रखने का अधिकार है।


बैंकर के ग्राहकों के प्रति दायित्व


(Obligations of Banker to the Customers) बैंकर तथा माहक के विशेष सम्बन्ध बैंकों के माहकों के प्रति दायित्वों पर निर्भर


करते हैं। बैंकर के ग्राहक के प्रति मुख्य दायित्व निम्न प्रकार हैं


(1) ग्राहक के चैकों के भुगतान का वैधानिक दायित्व (Obligation of Banker to Pay Cheques of the Customer)


भारतीय विनिमय साध्य विलेख अधिनियम, 1881 (Indian Negotiable Instrument Act, 1881) की धारा 31 के प्रावधान के अनुसार प्रत्येक बैंकर पर ग्राहक के चैकों के भुगतान का वैधानिक दायित्व है बशर्ते कि चैक उचित ढंग से लिखा गया हो तथा आहत (Drawee) के खाते में पर्याप्त धनराशि शेष हो। यदि बैंकर जानबूझकर, भूल से अथवा बिना किसी वैध एवं उचित कारणों के ग्राहक के चैकों का भुगतान न करे तथा उनका अनादरण कर दे तो बैंकर को ग्राहक को होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति का दायित्व झेलना होगा।


बैंकर पर ग्राहक के चैकों के भुगतान का वैधानिक दायित्व तभी प्रभावी होता है जबकि बैंक पर लिखा गया चैक पूर्ण हो; उचित समय, स्थान एवं विधिवत् प्रस्तुत किया गया हो; ग्राहक के खाते में पर्याप्त धनराशि आहरण योग्य हो तथा उस पर कोई सरकारी कुर्की आदेश न हो। स्पष्ट है कि ग्राहक के चैकों के भुगतान का बैंकर का दायित्व निम्न शर्तों के पूरा होने पर ही प्रभावी होगा


(i) ग्राहक का चैक पूर्ण हो-बैंकर पर प्राहक द्वारा लिखा गया चैक पूर्ण होना जरूरी है अर्थात् चैक स्पष्ट लिखा हो, तारीख, राशि, नाम तथा आहार्थी (Drawee) के नमुनानुसार हस्ताक्षर बिना काट-पीट, राशि अंकों एवं शब्दों में लिखी हो और चेक हर प्रकार से पूर्ण एवं भुगतान योग्य हो। ये सर्वे पूरी न होने पर बैंक का भुगतान रोका या मना किया जा सकता है।


(II) आहावीं के खाते में पर्याप्त धनराशि जमा हो-बैंकर पर प्राहक के चैकों के


भुगतान का दायित्व भी होता है जबकि माहक के खाते में पर्याप्त धनराशि जमा हो अथवा


अविकर्ष सुविधा (overdraft facility) की सीमा तक चैक लिखा गया हो। (II) बैंक भुगतान के लिये विधिवत प्रस्तुत किया गया हो बैंकर पर चैक भुगतान का दायित्व तब उत्पन्न होता है जम चैक पूर्ण होने के साथ-साथ विधिवत् ठीक समय, उचित स्थान तथा उचित ढंग से प्रस्तुत किया जाता है। दूसरे शब्दों में, चैक बैंक की उसी शाखा पर प्रस्तुत किया जाना चाहिये जिस शाखा पर चैक लिखा गया हो और बैंकिंग कार्यावधि में विधिवत् प्रस्तुत किया गया हो और चैक भुगतान योग्य हो। अगर चैक लिखने की तिथि के 6 माह बाद प्रस्तुत किया जाता है तो वह चैक अवधि पार (stale) हो जाने भुगतान योग्य नहीं रहता। इसी प्रकार अगर उत्तरतिथीय चैक (Post-Dated Cheque) लिखित तिथि से पहले ही भुगतान के लिये प्रस्तुत करने पर भुगतान योग्य नहीं होता।


(iv) ग्राहक का खाता होने पर हो बैंकर चैक भुगतान के लिये उत्तरदायी होता है। क्लेमर एण्ड कम्पनी बनाम ड्रेसनर बैंक विवाद में दिया गया निर्णय इस आशय की पुष्टि करता है कि ग्राहक का खाता होने पर ही बँकर चैक भुगतान के लिये उत्तरदायी है अन्यथा नहीं।"


(v) अधिविकर्ष की सुविधा को बिना पूर्व सूचना के एकतरफा कार्यवाही से भंग करने पर बैंकर पर चैक भुगतान का दायित्व होता है। इण्डियन ओवरसीज बैंक बनाम नारायण प्रसाद गोविन्द लाल पटेल विवाद 1980 में गुजरात उच्च न्यायालय का निर्णय इसकी पुष्टि करता है जिसमें बैंक ने बिना किसी लिखित अनुबन्ध के ग्राहक को चार वर्ष तक 500 रु. अधिविकर्ष को सुविधा दे रखी थी। उसे बिना पूर्व सूचना के बैंक ने वापस ले लिया और माहक के चैक को अनादरित (Dishonour) कर दिया। इसके लिये बैंकर को ग्राहक को होने वाली हानि के लिये क्षतिपूर्ति का उत्तरदायी माना गया।


यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अप्रैल, 1989 के बाद यदि कोई ग्राहक बिना पर्याप्त जमा राशि के बैकर पर चैक लिखता है तो चैक आहार्थी (Drawee) पर चैक राशि के दुगुने तक जुर्माना अथवा एक वर्ष का कारावास अथवा दोनों दण्ड दिये जाने का प्रावधान है। इस कारण अब प्रत्येक माहक आहार्थी पर भी यह वैधानिक दायित्व है कि वह बिना यथेष्ट धन जमा शेष के बैंक पर चैक न काटे अन्यथा दण्ड का भागी होगा।


(2) बैंकर पर ग्राहक के चैक का अनुचित अनादरण पर दायित्व


(Banker's Liability on Wrongful Dishonour of Customer's Cheques) यदि बैंकर बिना किसी वैध कारणों के ग्राहक के चैकों का भूल से अथवा जानबूझकर गलत अनादरण कर दे तो भारतीय विनिमय साध्य विलेख 1881 की धारा 31 के प्रावधानों के अनुसार बैंकर ग्राहक को होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति के लिये उत्तरदायी होगा।


ग्राहक के बैंक का अनुचित अनादरण होने पर ग्राहक को होने वाली क्षति दो प्रकार की हो सकती है 

(1) साधारण इति (Nominal Loss)- बैंक द्वारा ग्राहक के बैंक का अनुचित


अनादरण होने पर साधारण क्षति तब मानी जाती है जब माहक व्यापारी अथवा व्यवसायी


अगवा उद्योगपति न हो। गिन्स बनाम वेस्ट मिनिस्टर बैंक विवाद में श्रीमती गिबन्स द्वारा का जो मकान मालिक को दिया गया, बैंक ने भूल से उस चैक का अनादरण कर दिया। उसकी क्षतिपूर्ति में न्यायालय ने सामान्य क्षतिपूर्ति का आदेश दिया। 

 (2) पर्याप्त क्षतिपूर्ति (Substantial Loss) - जब बैंकर द्वारा किसी व्यापारी, व्यवसायी अगवा उद्योगपति माहक का चैक गलती से अनादरण किया जाये तो बैंकर पर पर्याप्त क्षतिपूर्ति का दायित्व होता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि चैक के गलत अनादरण से (अ) ग्राहक की व्यावसायिक साख पर चोट पहुँची हो, (थ) महत्वपूर्ण सौदा या ठेका रद्द हो गया हो, (स) ग्राहक पर लेनदारों का विश्वास टूटने लगा हो, अथवा (द) ग्राहक के व्यवसाय के बन्द होने की संभावनाएँ उत्पन्न हो गई हो।


यह उल्लेखनीय है कि चैक की राशि जितनी छोटी होगी उसके अनुचित अनादरण से ग्राहक की साख एवं प्रतिष्ठा को उतना ही बड़ा धक्का एवं अधिक क्षति पहुंचती है। इस नाराय की पुष्टि डेविडसन बनाम वार्कलेज बैंक विवाद के निर्णय से होती है जिसमें बैंक डेविडसन के लगभग 2.75 पौण्ड के चैक का अनुचित अनादरण होने पर न्यायालय ने बैंक को 250 पौण्ड की क्षतिपूर्ति का आदेश दिया।


(3) बैंकर पर ग्राहक के खातों की गोपनीयता का दायित्व


(Obligation of Secrecy of Accounts of the Customer) प्रत्येक बैंकर पर अपने ग्राहकों के खातों के बारे में विधिसम्मत गोपनीयता रखने तथा ग्राहक से सम्बन्धित किसी भी तथ्य को तीसरे पक्षकार को नहीं बताने का वैधानिक दायित्व है।


टर्ननियर बनाम नेशनल प्रोविन्शियल बैंक विवाद 1924 के निर्णय में विद्वान न्यायाधीश ने कहा कि ग्राहक के कार्यकलापों की गोपनीयता रखना बैंक का वैधानिक दायित्व है जो बैंक तथा ग्राहक के बीच गर्मित अनुबन्ध से उत्पन्न होता है अतः बैंक को अपने ग्राहक के खाते तथा उससे सम्बन्धित किसी तथ्य को किसी तीसरे पक्षकार को नहीं बताना चाहिये।"


आधुनिक युग में आर्थिक गतिविधियों में सरकारी हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण कई बार बैंकों पर ग्राहक के खातों तथा उससे सम्बन्धी तथ्य सरकार द्वारा अधिकृत तीसरे पक्षों को बताने की वैधानिक बाध्यता होती है अतः इसी कारण भारतीय बैंकिंग कम्पनियाँ (उपक्रमों का अर्जन तथा अन्तरण) अधिनियम 1970 की धारा 13 में राष्ट्रीयकृत बैंकों के लिये स्पष्ट प्रावधान है कि “जब तक विधि द्वारा अन्यथा अपेक्षित न हो, बैंकों में प्रचलित पद्धतियों एवं रीति-रिवाजों का पालन करेंगे और विशेष रूप से अपने घटकों के कामकाज से सम्बन्धित कोई जानकारी तब तक प्रकट नहीं करेंगे जब तक कि परिस्थितियां ऐसी न हों जिनमें उन्हें विधि द्वारा अथवा बैंकों में प्रचलित पद्धतियों एवं रीति-रिवाजों के अनुसार ऐसी जानकारी देना आवश्यक अथवा उचित न हो।"

बैंकर पर ग्राहक के खातों एवं काम-काज सम्वन्धी तथ्यों की जानकारी देने की


वाध्यता की परिस्थितियां


5.15


यद्यपि बैंकर पर माहकों के खातों एवं उनके कामकाज से सम्बन्धित तथ्यों की गोपनीयता रखने का वैमानिक दायित्व है पर निम्नलिखित परिस्थितियों में बैंकर पर ग्राहक के खातों एवं उससे सम्बन्धित तथ्यों की जानकारी तीसरे पक्ष को देने की कानूनी बाध्यता भी है


(A) जब जानकारी देने की वैधानिक अनिवार्यता हो (Where Discloser is under Compulsion by Law)- यदि बैंकर से ग्राहक के खातों तथा उसके कामकाज से सम्बन्धित तथ्यों की किसी कानून के अन्तर्गत चाही जाती है तो चाही गई जानकारी देना बैंकर के लिये वैधानिक अनिवार्यता है पर यह सूचना वहीं तक सीमित रहनी चाहिये जिस सीमा तक चाही गई है। निम्नलिखित अधिनियमों के अन्तर्गत बैंकर पर जानकारी देने की कानूनी बाध्यता है—


(i) आयकर अधिनियम 1961 के अन्तर्गत (Under Income Tax Act, 1961)- आयकर अधिकारियों को किसी ग्राहक के कर दायित्व निर्धारण हेतु बैंकर से उस पाहक के खातों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का वैधानिक अधिकार है। (ii) उपहार कर अधिनियम 1958 के अन्तर्गत (Under Gift Tax Act,


1958)– इस अधिनियम की धारा 36 के अन्तर्गत भी कर निर्धारण अधिकारियों को बैंकर


पर ग्राहक के खातों की जानकारी देने की कानूनी बाध्यता है।


(iii) विदेशी मुद्रा नियन्त्रण अधिनियम, 1973 के अन्तर्गत (Under Foreign Exchange Regulation Act, 1973)- इस अधिनियम की धारा 43 के अन्तर्गत उसके अधिकृत अधिकारियों को ग्राहकों के खातों और तत्सम्बन्धी प्रपत्रों की जांच करने तथा सूचना प्राप्त करने का अधिकार है।


(IV) भारतीय बैंकिंग अधिनियम, 1949 के अन्तर्गत (Under Indian Banking Companies Act, 1949) इस अधिनियम की धारा 26 के अन्तर्गत प्रत्येक बैंकिंग कम्पनी के लिये यह वैधानिक अनिवार्यता है कि वह रिजर्व बैंक को प्रति वर्ष ऐसे खातों व उनकी धनराशि का विवरण भेजे जिनमें गत दस वर्षों से किसी प्रकार का लेन-देन नहीं हुआ 1


(v) भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 के अन्तर्गत (Under R.B.I. Act, 234)- इस अधिनियम की धारा 45(B) के अन्तर्गत प्रत्येक बैंकिंग कम्पनी पर यह धानिक दायित्व है कि वह रिजर्व बैंक को उनके द्वारा दिये गये ऋणों की धन राशि तथा गियों की सूची नियमित रूप से भेजे।


(vi) भारतीय कम्पनी अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत (Under Indian mpanies Act, 1956)- इस अधिनियम की धारा 235 तथा 237 के प्रावधानों के तर्गत किसी कम्पनी की जांच के लिये सरकार द्वारा नियुक्त निरीक्षक को बैंक से कम्पनी बारे में आवश्यक सूचना प्राप्त करने का वैधानिक अधिकार है


(vii) बैंकर पुस्तक साक्ष्य अधिनियम, 1891 के अन्तर्गत (Under Banker's ks Evidence Act, 1891)- इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार न्यायालय को साक्ष्य के रूप में से प्राहक के खातों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का वैधानिक अधिकार है।


(MH) भारतीय दण्ड प्रक्रिया संहिता के अन्तर्गत (Under Indian Criminal


Procedure Code) इस अधिनियम की धारा 94 (B) के अन्तर्गत किसी मामले की


जांच में संलग्न पुलिस अधिकारियों को जांच के उद्देश्य से बैंकको लेखा पुस्तकों का


निरीक्षण करने तथा आवश्यक सूचना एकत्रित करने का वैधानिक अधिकार है। (B) जनहित में ग्राहक के खातों एवं कामकाज के तथ्यों की जानकारी प्रकट करना आवश्यक है (Where Discloser of Information is Essential in Public (Intcrest)-जन बैंकर यह अनुभव करने लगे कि राष्ट्र विरोधी गतिविधियों में लिप्त मादक के बारे में जानकारी प्रकट करना जनहित में है तो यह बैंक का कर्तव्य है कि वह ऐसे माहक के सम्बन्ध में सूचना देवे। यह सब तात्कालिक परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि कौनसी जानकारी प्रकट करना जनहित में है।


(C) ग्राहक की स्पष्ट अथवा गर्भित सहमति से जानकारी प्रकट करना (Discloser of Information with Express or Implied Consent of the Customer) माहक की स्पष्ट अथवा गर्भित सहमति होने पर भी बैंकर द्वारा उसके खातों एवं कामकाज के तथ्यों के बारे में जानकारी देना न्यायसंगत माना जाता है। बहुत सी बार ग्राहक स्वयं जमानत पर ऋण लेने अथवा अन्य बैंक से अधिविकर्ष की सुविधा प्राप्त करने और किसी नये व्यावसायिक सम्बन्धों के लिए बैंकर को अपने कामकाज के तथ्यों सम्बन्धी जानकारी देने का आदेश दे देता है तो बैंकर द्वारा दी गई जानकारी न्यायसंगत है।


(D) बैंकर के स्वयं के हित में ग्राहक के खातों सम्बन्धी जानकारी देना आवश्यक (Where Discloser of Information about the Accounts of Customer is essential in Banker's interest) बैंकर द्वारा अपनी बात की प्रामाणिकता सिद्ध करने हेतु स्वयं के हित में भी ग्राहक के खातों एवं कामकाज के तथ्यों सम्बन्धी जानकारी दूसरों की देना न्यायोचित माना जाता है


(E) विभिन्न बैंकों द्वारा परस्पर जानकारी देना (Mutual Discloser by Bankers) - बैंकों में प्रायः यह परिपाटी प्रचलित है कि वे एक-दूसरे को ग्राहकों के सम्बन्ध में मांगी गई जानकारी देते हैं ताकि उन्हें ग्राहक की तथ्यात्मक जानकारी उपलब्ध रहे और उसी के आधार पर व्यवहार बढ़ाया जा सके। इस प्रकार की परस्पर जानकारी भी न्यायसंगत एवं उपयुक्त मानी जाती है।


ग्राहक सम्बन्धी सूचना में सावधानी


(Precaution in Information) बैंकर को ग्राहक के खातों एवं काम-काज सम्बन्धी सूचना देने में बड़ी सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि कभी कभी गलत एवं अनुचित सूचना के लिये बैंकर न केवल प्राहक के प्रति क्षतिपूर्ति का उत्तरदायी होगा वरन् उसे तीसरे पक्ष की क्षतिपूर्ति के लिये उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। अतः बैंकर को ग्राहक के कामकाज तथा खातों की सूचना देते समय निम्नलिखित सावधानियां बरतनी चाहिये -

केवल तथ्यात्मक सूचना ही देनी चाहिये-बैंकर को अपनी राय या विचार


व्यक्त करना उपयुक्त नहीं।


5.17


(II) सूचना केवल अधिकृत व्यक्ति अथवा संस्था को ही दी जाये-गैर व्यक्तियों को सूचना देना न्यायोचित नहीं है। (III) सूचना सांकेतिक एवं सामान्य हो-ग्राहक के बारे में बैंकर को सूचना सामान्य


तथा सांकेतिक होनी चाहिये। वास्तविक आंकड़े तथा पूर्णतः स्पष्टीकरण संकट का कारण


बन सकते हैं।


(iv) गोपनीयता एवं उत्तरदायित्व से मुक्ति का संकेत -सूचना देते समय बैंकर को स्पष्ट कर देना चाहिये कि यह सूचना गोपनीय रखी जाये तथा सूचना के आधार पर बैंक का कोई दायित्व नहीं है।


(v) हस्ताक्षर नहीं इंगलैण्ड में बैंकर ग्राहक के सम्बन्ध में सूचना देते समय


उत्तरदायित्व से बचने के लिये हस्ताक्षर नहीं करते। भारत में भी कई बैंकर इसका अनुसरण


करते हैं।


(4) ग्राहक के बारे में अनुचित अथवा


गलत सूचना देने पर बैंकर का दायित्व (Banker's Liability for Wrongful Information)


यद्यपि बैंकर पर माहक के खातों एवं कामकाज के तथ्यों की गोपनीयता का दायित्व है पर वैधानिक बाध्यता, बैंकिंग परिपाटी एवं जनहित में ग्राहक के बारे में जानकारी देने की जरूरत होती है। अतः बैंकर को ऐसी सूचना देते समय बड़ी सावधानी रखनी चाहिये क्योंकि गलत एवं अनुचित ढंग से दी गई जानकारी में बैंकर को लापरवाही का दोषी ठहराकर क्षतिपूर्ति की मांग की जा सकती है। ऐसी अवस्था में बैंकर न केवल ग्राहक के प्रति उत्तरदायी ठहराया जा सकता है वरन् सूचित किया जाने वाला तीसरा पक्षकार भी क्षतिपूर्ति का दावा कर सकता है अगर उसने बैंक की सूचना पर विश्वास करने से हानि उठाई है और यह सिद्ध हो जाये कि बैंक ने सूचना देने में लापरवाही बरती है या बैंकर ने सूचना को सही नहीं मानते हुए भी ऐसी सूचना दी है।


(5) कुर्की आदेश पर बैंकर का दायित्व (Responsibility of Banker on Garnishee Order)


सिविल प्रक्रिया संहिता (Civil Procedure Code) के नियम 46 आदेश 21 के अन्तर्गत जब कभी लेनदार की प्रार्थना पर न्यायालय के कुर्की आदेश द्वारा बैंक में पड़े ऋणी के धन की निकासी पर रोक लगा दी जाती है तो बैक पर न्यायालय आदेश की पालना का दायित्व आ जाता है। आदेश तत्काल प्रभाव से लागू जाता है। जब उस आदेश की प्रति बैंक के मुख्य कार्यालय को दे दी जाती है तो सभी शाखा कार्यालयों में भी उसे दिया हुआ मान लिया जाता है।


(A) न्यायालय द्वारा कुर्की आदेश पर बैंकर का दायित्व (1) कुर्की आदेश मिलते ही तत्काल प्रभाव से लागू माना जाता है अतः बैंकर को आहक के खाते में से धन निकासी पर तत्काल रोक लगाने का दायित्व है। कुर्की आदेश बैंक के मुख्य कार्यालय को दिया जाने पर भी यह सभी शाखाओं को दिया हुआ मान लिया। जाता है और मिलने के साथ-साथ तत्काल प्रभाव से लागू होता है। इस कुकी आदेश प्राप्ति के पूर्व ग्राहक के खाते से भुगतान एवं निकासी पर बैंक का कोई दायित्व नहीं बनता। (2) कुर्की आदेश में राशि का स्पष्टीकरण होने पर उतनी राशि माहक के खातों में


(3) कुक का आदेश प्राहक के उस बैंक में सभी खातों पर लागू माना जाता है अतः बैंकर पर सभी खातों में धन-निकासी पर रोक का दायित्व है। (4) प्राहक के सभी खातों का एकीकरण चूंकि कुक आदेश ग्राहक के बैंक से सभी प्रकार के खातों पर धन निकासी पर रोकने का दायित्व होता है अतः सम्पूर्ण जमा क


को किसी एक खाते में स्थानान्तरित करने का दायित्व है। (5) कुर्की आदेश के दिन विद्यमान खातों पर ही कुळीं आदेश लागू होता है-अतः कुकों आदेश के बाद खोले गये नये खातों से ग्राहक के द्वारा धन निकासी पर बैंकर कोई दायित्व नहीं केवल विद्यमान पुराने खातों से धन निकासी पर रोक का दायित्व है।


कुकों आदेश लागू नहीं होने की दशायें-यद्यपि बैंकर पर यह दायित्व है कि वह न्यायालय के कुर्की आदेश मिलते ही ग्राहक के खातों से धन निकासी पर रोक लगा दे किन्तु निम्नलिखित दशाओं में कुर्की आदेश लागू नहीं होने से बैंकर पर उनका कोई दायित्व नहीं बनता


(i) ट्रस्ट के रूप में खाता (Trust Account)- अगर बैंक में ग्राहक का ट्रस्टी के


रूप में कोई खाता हो तो ग्राहक की निजी देयताओं के लिये ट्रस्टी के खाते पर कुर्की आदेश


लागू नहीं होता। (ii) संयुक्त खाता (Joint Account) संयुक्त खाते के किसी एक खातेदार के विरुद्ध कुर्की आदेश हो तो भी संयुक्त खाते को कुर्क नहीं किया जा सकता।


(iii) साझेदारी खाता (Partnership Account) जब किसी फर्म के किसी माझेदार के व्यक्तिगत खाते पर कुर्की के आदेश हों तो फर्म के खातों को कुर्क नहीं किया सकता।


यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अगर किसी साझेदारी फर्म पर कुर्की के आदेश हों तो केवल साझेदारी फर्म के खाते कुर्क किये जायेंगे वरन साझेदारों के व्यक्तिगत खाते भी किये जा सकते हैं पर किसी साझेदार के व्यक्तिगत खाते पर कुर्की के आदेश हों तो मदारी फर्म के खातों पर कुर्की के आदेश लागू नहीं होते। (iv) ग्राहक द्वारा नया खाता खोलने पर ग्राहक के इस नये खाते पर कुर्की आदेश


नहीं होता। यह आदेश तो केवल विद्यमान खातों पर ही लागू होता है


1


(v) कुर्की आदेश में ऋणी का नाम बैंक के खातेदार के नाम से भिन्न होने पर भी आदेश लागू नहीं होता क्योंकि बैंकर के लिये यह निश्चित करना कठिन है कि कुर्की खातेदार पर है।


(vi) कुर्की आदेश प्राप्ति के बाद जमा राशियों पर कुर्की आदेश लागू नहीं होता।


(B) आयकर अधिकारियों द्वारा कुर्की आदेश पर बैंकर का दायित्व (Banker's Responsibility on Garnishee Order by Income-tax Authorities)


जब कोई व्यक्ति या संस्था आयकार का भुगतान नहीं करते तो आयकर अधिनियम की धारा 226 (3) के अन्तर्गत आयकर अधिकारियों को बकाया आयकर (वसूली) के लिये ऐसे व्यक्ति या संस्था के बैंक खाते पर कुर्की आदेश जारी करने का अधिकार है। ऐसे कुर्की आदेश का पालन करना बैंकर का वैधानिक दायित्व है। अगर बैंक आयकर कुर्की आदेश का पालन नहीं करता तो उसे भी त्रुटि करने वाला करदाता (Assessce in Default) मान कर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है।

Arjun Singh

नमस्कार दोस्तो, मेरा नाम अर्जुन सिंह है, मैं अभी बी.कॉम से ग्रेजुएशन कर रहा हूं । मुझे लेख लिखना बहुत पसंद है इसलिय में ये ब्लॉग बनाया है, मेरे ब्लॉग पर आने के लिए आपका धन्यवाद!

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